406/2023
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●©शब्दकार
● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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आस्तीन के साँप ही, फैलाएँ फण-जाल।
विष फैलाते नित्य ही,बुरा देश का हाल।।
अपने जिनके बिल नहीं, फैला तंबू एक,
घुसें पराए धाम में,खम ठोकें तत्काल।
छोड़ सपोले हैं दिए, मनमानी हो नित्य,
जता रहे अधिकार वे,बजा-बजा कर गाल।
रक्तपात आतंक से,डरे हुए जन आज,
साँपों का प्रिय खेल है,करना बड़े बवाल।
मूढ़ सपेरे हो गए, बेबस बल से हीन,
सड़कों पर लोहू बहे,नोंच खा रहे खाल।
बिना किए सब चाहिए,जिसे निवाला भोग,
किंचित उनको तो नहीं,मन में शेष मलाल।
'शुभम्' पालते साँप जो,और पिलाते दूध,
डंसना है उनको उन्हें,शेष न सिर के बाल।।
●शुभमस्तु !
18.09.2023◆5.30आरोहणम् मार्तण्डस्य।
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