395/2023
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● © शब्दकार
● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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ईश -वास सचराचर कण में।
गिरि,सागर, धरती के तृण में।।
मनुज निहारे केवल मुखड़ा,
देखे नहीं कर्म - दर्पण में।।
प्रभु की भक्ति नहीं पाने में,
भक्ति -वास देने के प्रण में।।
शब्दों का है जाल न कविता,
कविता होती रस-प्रसवण में।।
सदियों सोता रहा आदमी,
प्रकृति करती लघुतम क्षण में।।
स्वेद-सिक्त परिणाम न खोना,
लगा स्वयं को नश्वर पण में।।
'शुभम्' सहज गिर जाना नीचे,
कठिन उठाना ध्वज को रण में।।
●शुभमस्तु !
04.09.2023◆6.15आ०मा०
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