बुधवार, 17 फ़रवरी 2021

जमी न अब तक दूब [ दोहा ]


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✍️ शब्दकार ©

🍃 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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रोज़ -रोज़ मैं सोचता,करना आत्म सुधार।

पर वह दिन आया नहीं,बनी जिंदगी भार।।


सुने  बहुत  उपदेश  भी, लगते मोहक  खूब।

उर की धरती पर नहीं,जमी आज तक दूब।।


गीता, रामायण पढ़ी,पढ़ता ग्रंथ अनेक।

वैसा का वैसा रहा, बना न इंसाँ  नेक।।


माला फेरी जप किया,मंदिर जाता रोज़।

पूजा की गा आरती,पर न हुई प्रभु खोज।।


तिलक,छाप व्रत भी किया,रँगे गेरुआ  वस्त्र।

पर वाणी से छोड़ता, रहा सदा मैं अस्त्र।।


कर्म  स्वयं करता नहीं,देता पर -उपदेश।

जो कपटी गुरु मंच का,रँगकर  बैठा वेश।।


व्यास पीठ पर बैठकर,गाता भजन हज़ार।

पर - नारी को हेरता,उस नर को धिक्कार।।


चरित घास चरता रहा,करनी मैली कुंद।

चढ़ा पीठ चिंघाड़ता, गंग सुरा की   बुंद।।


वाणी  से  अमृत   रिसे, उर  में  काँटे  झाड़।

अवसर मिले न चूकता,मिल जाए जोआड़।


पर धन पर नारी मिले, मन में मैली  चाह।

कथा भागवत पढ़ रहे,सावन भादों माह।।


पोल न उनकी खोलना,करें नित्य जो पाप।

उपदेशक गुरु पीठ के,लगता उन्हें न ताप।।


🪴 शभमस्तु !


१४.०२.२०२१◆९.०० पतनम मार्त्तण्डस्य।

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