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✍️ लेखक ©
💃🏻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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हम कितने बड़े नारी -हितैषी हैं यह कोई हमसे सीखे! युग -युग से ये कहा और सुना जा रहा है कि 'यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमन्ते तत्र देवता:'।अर्थात जहाँ नारियों की पूजा होती है , वहाँ देवता रमण करते हैं। आख़िर देवताओं को इन नारियों से कुछ स्वार्थ तो होता ही होगा ,अन्यथा अपना घर -बार ,काम -काज छोड़कर नारियों के चारों ओर चक्कर क्यों लगाते? बशर्ते वे कुछ काम -काज करते भी हों, क्योंकि जहाँ देवताओं को मन में इच्छा करते ही सब कुछ उपलब्ध हो जाता हो , उन देवताओं को कोई काम करने की आवश्यकता ही क्या है? कोई खेती -बाड़ी , कार्यालय में नौकरी, व्यवसाय , मिलावट का धंधा , चोरी , डकैती, गबन, तो करने से रहे! फिर भला केवल नारियोंको सम्मान देने के लिए ही ये क्यों चक्कर चलाने लगे? यह भी एक शोध का विषय है।
शोध के चक्कर में क्यों पड़ें।इसलिए इस समय यही मान लेते हैं कि नारियों के ताबड़तोड़ सम्मान करने की, उनका सीमा से बाहर हित करने की,उन्हें अबला मानकर उन्हें बल देने की हमारी आदत पड़ गई है।( हम अपने को किसी देवता से कम नहीं मानते हैं, यह हमें सदा स्मरण रखना होगा।) हमारा एक संस्कार ही बन गया है।हृदय की पुकार बन गया है। इसलिए एक परंपरा के तहत हम भी उसी ढपली को बजाए जा रहे हैं।कोई ढपली भी बिना मतलब के नहीं बजाता , हमारे इस विशेष ढपली-वादन में भी हमारा कुछ अंतर्निहित उद्देश्य भी होगा।जिस समाज औऱ दुनिया में कोई भी किसी की कटी हुई अँगुली पर स्वमूत्र -विसर्जन नहीं करता,वहाँ कोई नारी को यों ही सम्मान लुटाए ,बात कुछ हज़म नहीं होती। हर नारी को माँ -बहन का सम्मान देने के 'सु -समाचारों' से आजकल के अख़बार भरे पड़े हैं।पुरुष की ' अति - मानवतावादी' 'शुभ-दृष्टि' के चमत्कार भरे कारनामे उसकी 'उज्ज्वल संस्कृति' और 'सु-संस्कारों' के द्योतक हैं।
स्वदेश में ही नहीं पश्चिमी देशों में भी 'लेडीज फर्स्ट' इसलिए तो माना जाता है। यह भी 'रमन्ते तत्र देवता:' का बदला हुआ रूप है।उसी की देखा देखी यहाँ भी यह सिद्धांत चल नहीं,दौड़ रहा है। आदमी जब करता है तो हद ही करता है ,बल्कि हद की जद ही तोड़ देता है। सम्मान की भी हद हो गई कि वसंत ऋतु में मधुर कंठ से सारे वातावरण को एक मादक माधुरी से भर देने वाला नर कोयल होता है ,लेकिन इस आदमी की चाटुकारिता की हद तो तब टूट ही गई कि
'कोयल मधुर स्वर में बोल रही है,
कानों में मधु रस घोल रही है,
आया है ऋतुराज वसंत प्यारा,
कोयल डाली -डाली पर डोल रही है।।'
जानबूझ कर नर को नारी की उपाधि से सम्मानित करना ,उसकी अनभिज्ञता नहीं है, उसकी तेल मालिश ही है। इसी प्रकार हमारे यहाँ मछली का सपना देखना, यात्रा के समय मछली दर्शन या 'आते समय मछली लेते आना' कहना बहुत शुभ माना जाता है।मछली खाना शुभ होता हो या नहीं, ये कहना मेरे लिए न शुभ है औऱ न सही ही, क्योंकि इस अनुभव से परे हूँ। कोई यह नहीं कहता 'मछला लेते आना, मैंने आज स्वप्न में मछला देखा ' आदि आदि। देखते सब मछली ही हैं, मँगाते सब मछली ही हैं। यहाँ भी नारी मछली को शुभता का प्रतीक माना गया है। एक औऱ उदाहरण से अपनी बात की पुष्टि करने की कोशिश करूँगा । जब कोई अपने गाल से कुछ ऐसे शब्द कहता है ,जिन्हें विद्वान /विदुषियां अपशब्द कहते हैं ,लेकिन समाज की भाषा में उसे 'गाली' कहा जाता है। अब आप ही सोचिए कि वह 'गाली' हुई या 'गाला'। ये कैसा सीमा का अतिक्रमण कि पुरुष को नारी बना दिया? शायद नारी. -सम्मान के लिए ही ऐसा किया जाता होगा।
यह लिंग परिवर्तन की प्रथा कुछ नई नहीं है। आदमी लकीर का फ़कीर जो है। वह जान बूझ कर किसी निहित स्वार्थ के मुहाने ऐसा कुछ भी उलटा-पुलटा कर लेता है।आप ये न समझें कि मैं नारी विरोधी हूँ। मैं भी नारी का सम्मान यथा सम्भव करता हूँ।पर 'लिंग बदलू' परंपराओं का कोरा समर्थक भी नहीं हूँ। आदमी ऐसा मिथ्याचारण करने लगा,इसीलिए भगवान ने एक बीच का तीसरा लिंग(Third Gender,संस्कृत में नपुंसक लिंग) भी जन्मा दिया। ये लो उसे क्या कहोगे ?नर या नारी? इसलिए कहा गया किन्नर(किं नर:? अर्थात क्या ये नर है?अर्थात नहीं। तो क्या? न नर, न नारी ।)।
कुछ नए शब्दकोष निर्माताओं ने तो दही ,पेंट, आदि हजारों शब्दों को नर लिंग से नारी लिंग में लिख बोलकर नारी का सम्मान -वर्द्धन ही किया है। परंतु हद तब हो गई जब उल्लू तो है पर उल्ली क्यों नहीं? कौवा है पर कौवी क्यों नहीं? गिद्ध तो है पर गिद्धनी कहाँ ? यह पुरुष वर्ग का सरासर अपमान ही तो है! अब यह कैसे कहूँ कि इसके लिए नारी ही जिम्मेदार है, पुरुष भी होगा। ऐसा नहीं होना चाहिए । यदि मैं यह कहने लगूँ कि कोयल कूक रहा है। तो मुझे रोकने ,टोकने के लिए हजार हाथ खड़े हो जायेंगे औऱ हाथों की दस हजार अंगुलियाँ भी सतर्क हो खड़ी हो जाएँगीं।अरे !ये क्या कह रहे हैं ?जबकि उन्हें स्वयं नहीं मालूम कि कोयल की चमचेगीरी करते -करते उन्हें यह भी नहीं पता कि बोल रहा है कि बोल रही है!
हम नारी सम्मान प्रदाता।
तिरसठिया नारी से नाता।।
चोंच लड़ाना हमको आता।
शीश चढ़ाना हमको भाता।।
कोयल बोला कहें बोलती।
ऋतु वसंत में शहद घोलती।।
नर का लिंग बदल हम डाला।
ऊपर से पहनाई माला।।
चाटुकारिता हमसे जानो।
गुरु घंटाल हमें सब मानो।।
नीर अलग कर क्षीर निकाला।
झूठे के साँचे में ढाला।।
बुरा नहीं है झूठ बोलना।
सच में भी कुछ धूल घोलना।
साड़ी पहन बना दें नारी।
जो पड़ती नर पर भी भारी।
। माखन को लगाना सदा श्रेष्ठ है।
माखन को खाना हुआ नेष्ट है।।
आती है हमको ये उत्तम कला।
कर पाते सहज हम जग की बला।।
आओ मक्खन लगाना सिखा दें सनम
। ठंडा कर दें पलों में सोए जो बम।।
कोयले से ही हीरा बनाते हैं हम।
कहता आप लोगों से साँची 'शुभम'।।
🪴 शुभमस्तु !
०९.०२.२०२१.१.३०पतनम मार्त्तण्डस्य।
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