बुधवार, 17 फ़रवरी 2021

पनघट प्यासे [ दोहा- ग़ज़ल ]


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✍️ शब्दकार©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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पनघट प्यासे गाँव के,प्यासे हैं नर- नार।

कंकरीट पर दौड़ते,वाहन की भरमार।।


पेड़  रोज  ही कट रहे, ऊजड़ लगते   गाँव,

सड़कें काले नाग-सी, मार रहीं फुफकार।


देश, देश  चिल्ला  रहे,  सारे नेता   लोग,

वेश,तिजोरी,वंश की,बस उनको दरकार।


थोप दिये कानून सब, कृषक हुआ मजबूर,

आत्मघात की भूमिका,है प्रत्यक्ष  साकार।


कूके कोयल अब कहाँ, कब बौराएँ आम,

पता नहीं लगता यहाँ,पादप कटे अपार।


अरहर सरसों की महक,मिले नहीं मधुमास,

लोग  ढूँढ़ते  शहर  में, महक भरा  संसार।


मर्ज  दबाई  देह  की,  खाकर दवा   अनेक,

बोतल  में   नीरोगता, बसती देखो    यार।


जहर   पचाने के  लिए,खाता विष   इंसान,

शुद्ध अन्न ,सब्जी, नहीं,जन जन है बीमार।


'शुभम' देश  कैसे बचे,मानव ही  है  भृष्ट,

लगा मुखौटा  घूमते,दानव  घर - घर द्वार।


🪴 शुभमस्तु !


१७.०२.२०२१◆४.०० पतनम मार्त्तण्डस्य।

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