गुरुवार, 18 फ़रवरी 2021

वसंत के रंग(1) [ दोहा ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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तितली झूमी फूल पर,करती है  मधुपान।

ऋतु वसंत की भा गई,भृंग करें गुण गान।।


कुहू-कुहू कोयल करे,आम्र कुंज तरु डाल।

बौराए हैं  सघनतम, चादर ओढ़   रसाल।।


सरसों  नाची  खेत में, झूम- झूम  दे   ताल।

पीली चादर ओढ़ ली,मधु ऋतु का संजाल।।


अरहर  रह-रह  झूमती, पीले -पीले    फूल।

अलसी कलशी धारती,सिर पर करे न भूल।।


कल कल कर सरिता बहे,गाती  जैसे गीत।

सागर से मिलने चली,निज प्रीतम मनमीत।।


देखो  होली  आ रही, कहता पुष्प   पलाश।

वन  में  रंग  बिखेरता,मन में भरता  आश।।


गेहूँ   गह - गह  झूमता, बाली नई    अनेक।

चना, मटर फूले -फले,माधव का अभिषेक।।


ले पराग  मधुमक्खियां, जातीं उड़कर  दूर।

रस  फूलों  से  ले रहीं, करें निषेचन   पूर।।


धरती दुल्हन-सी सजी,किया प्रकृति श्रृंगार।

फूल खिले कलियाँ नई,अद्भुत है    उपहार।।


नभ में उज्ज्वल चाँदनी, चली  चाँद के पास।

पूनम की निशि आ गई,देती कल की आस।।


पीले   पल्लव झर गिरे,धरती स्वच्छ  प्रसन्न।

आते हैं ऋतुराज जी,अवधि निकट आसन्न।।


🪴 शुभमस्तु !


१८.०२.२०२१◆२.००पतनम मार्त्तण्डस्य।

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