◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆
✍️ शब्दकार ©
🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆
तितली झूमी फूल पर,करती है मधुपान।
ऋतु वसंत की भा गई,भृंग करें गुण गान।।
कुहू-कुहू कोयल करे,आम्र कुंज तरु डाल।
बौराए हैं सघनतम, चादर ओढ़ रसाल।।
सरसों नाची खेत में, झूम- झूम दे ताल।
पीली चादर ओढ़ ली,मधु ऋतु का संजाल।।
अरहर रह-रह झूमती, पीले -पीले फूल।
अलसी कलशी धारती,सिर पर करे न भूल।।
कल कल कर सरिता बहे,गाती जैसे गीत।
सागर से मिलने चली,निज प्रीतम मनमीत।।
देखो होली आ रही, कहता पुष्प पलाश।
वन में रंग बिखेरता,मन में भरता आश।।
गेहूँ गह - गह झूमता, बाली नई अनेक।
चना, मटर फूले -फले,माधव का अभिषेक।।
ले पराग मधुमक्खियां, जातीं उड़कर दूर।
रस फूलों से ले रहीं, करें निषेचन पूर।।
धरती दुल्हन-सी सजी,किया प्रकृति श्रृंगार।
फूल खिले कलियाँ नई,अद्भुत है उपहार।।
नभ में उज्ज्वल चाँदनी, चली चाँद के पास।
पूनम की निशि आ गई,देती कल की आस।।
पीले पल्लव झर गिरे,धरती स्वच्छ प्रसन्न।
आते हैं ऋतुराज जी,अवधि निकट आसन्न।।
🪴 शुभमस्तु !
१८.०२.२०२१◆२.००पतनम मार्त्तण्डस्य।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें