शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2021

इक्कीसवीं सदी के 21वर्ष 🌡️ [ व्यंग्य ]



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✍️ लेखक © 


✒️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम' 


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            21 वीं सदी अपने भरपूर यौवन पर है।वह अपने यौवन के इक्कीसवें वर्ष में दो माह पहले से ही अपनी पायल की झनकार सुना चुकी है।बीसवीं सदी बूढ़ी हुई विदा हो गई। बड़े बुजुर्गों के अनुभवों का अर्क निचोड़ कर देखिए तो पता लगता है कि विगत ही बेहतर था।वर्तमान उन्हें नहीं सुहाता। हर अनुभवी का अनुभव बताता है कि सदैव अतीत ही वर्तमान से श्रेष्ठतर होता है।


               मशीनों के साथ -साथ मानव भी मशीन हो गया है।क्या आपने कभी किसी मशीन का दिल भी देखा या सुना है? नहीं न! जब इंसान के तन ,मन और मष्तिष्क का मशीनीकरण हो जाएगा ,तब क्या होगा। संवेदनाएं शून्य हो जाएँगीं। देख रहे हैं कि आज केवल दिखावटी प्रेम , बनावटी सहानुभूति ,खनखनाती संवेदनाएं , सनसनाता स्नेह चमचमाते व्हाट्सएपिया संदेश धूम मचा रहे हैं। आदमी अपना चेहरा तालाब के स्थिर पानी या आईने में नहीं , फेशबुक(मुखपोथी) में निहार रहा है।जहाँ झूठ के धूम की ही धूम है।वाह क्या खूब है।अँधेरी रात में बड़ी धूप है। धूम ने हमेशा ही दृष्टि को धोखा दिया है।आज भी दे रहा है। देता भी रहेगा। सचाई कहीं धूम की धुंध में खो-सी गई है।मानवता सर्वत्र रो-सी रही है।


           कोई किसी की नहीं सुनना चाहता है। केवल अपने ही गीत सुना रहा है। सब उसकी सुनो । वह किसी की नहीं सुनेगा। क्या राजा ,क्या प्रजा ,क्या अधिकारी ,क्या  कर्मचारी,  सब का  एक ही हाल  है ।कुँवर  कलेऊ  का रसगुल्लों से भरा थाल है। सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं।माथे पर तिलक  कर्म में सब  झूठे  हें।  सब जगह बाईस पंसेरी धान है। किसी का कहीं नहीं कोई ईमान है न मान है।केवल और केवल स्वार्थ का ही गुणगान है। स्वार्थ से ही इन्सान की पहचान है।सम्बंध तेल बेच रहे हैं।शासक रेल बेच रहे हैं। कोई किसी का न बाप है ,न कोई किसी का भैया है। यहाँ तो सबसे बड़ा रुपैया है।कहने भर को गैया मैया है।पंच सितारा होटलों में वही गो मांस के खवैया हैं।जहाँ लाखों की टिकट में ताता थैया है। जैसे भी हो मेरा उल्लू सीधा हो जाए, भले सारा देश भाड़ में जाए! इसी मानसिकता का जोर है। 21 वीं सदी का ये कैसा दौर है!


            20 ,21 वीं सदी या उससे 20 वर्ष पहले पैदा हुई पीढ़ी क्या जाने कि देश किस चिड़िया का नाम है ! देशप्रेम क्या बला है! नगर पालिका का नल सड़क और गलियों में बराबर बह रहा है, उधर देश का होनहार कर्णधार बाइक धड़धड़ाता बढ़ रहा है, उसके न कान हैं न दो आँखें! वह इधर उधर क्यों झाँके ? क्योंकि  उसे  पोस्टर  पर   कमर मटकाती  हीरोइन  दिख रही है।  कोचिंग को  जाने के लिए देर  जो हो रही है। बह रहा  है  व्यर्थ  पानी, कौन करे निगरानी! नेता जी बेचारे बड़ी सी गाड़ी में सवार हैं ,उन्हें नल बंद करने की क्या दरकार है? कार्यालय, घर ,सड़कों पर दिन में बत्ती जल रही है। बन्द कालेज में रात भर पंखे कुर्सी - मेजों को मच्छरों से बचाते रहे हैं। चौकीदार तानकर सो रहा है। 21 वीं सदी में मेरे देश में ये क्या हो रहा है। 


           आज का नागरिक केवल वोट बनकर रह गया है। जातियों का छिछलापन अपने चरम पर है। मौसम वोट का आ रहा है। हिंदुत्व का बिगुल बजाने का त्यौहार जो मनाया जाना है। इसीलिए हर अछूत को हिन्दू का टीका लगाना है।वैसे अगड़ा, पिछड़ा का झगड़ा।किसने किसको कितना रगड़ा। इसी बात चलता रहता है बारहों मास भंगड़ा। देश को बांटने, तोड़ने की साजिश , उसे भस्म कर देने की आतिश, अब कुछ भी असम्भव नहीं है। आप समझ गए होंगे ,ये इक्कीसवीं सदी है। 


           अभी क्या है!आगे आगे देखिए होता है क्या! 21वीं सदी को बुढ़ाने में अभी 98 वर्ष 10 माह शेष हैं। इस सदी का आदमी भले इंसान के चोले में अपने को आदमी कहे, पर सही मायने में वह मेष है। इसी मेष से ही होनी देश और मानव की रेड़ है। विवेक की आंखों पर बाँध रखी है गांधारीय पट्टी।यही बनावटी अंधा देश की दुर्दशा का जिम्मेदार है।नेताओं का तो नेतागिरी एक किरदार है। जिसे वे पूरी ईमानदारी से निभा रहे हैं। बिच्छू से कहो कि डंसना छोड़ दे ,और उसे रसगुल्ले खिलाओ तो भी क्या वह अपना कर्म छोड़ देगा? निरंतर अधोपतन का का दूसरा नाम इक्कीसवीं सदी है। जी हाँ, ये इक्कीसवीं सदी है। 


 🪴 शुभमस्तु ! 


 २६.०२.२०२१◆३.३०पतनम मार्तण्डस्य।


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