■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■
✍️ शब्दकार ©
❤️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■
बचपन में हम इतिहास की पुस्तकों में पढ़ा करते थे कि प्रचीन काल में मानव अपने विकसित रूप में नहीं था।उस समय वह वन्य पशुओं और जलवायु गत मौसमी प्रहारों से आत्म रक्षार्थ पेड़ों, गुफाओं आदि में निवास करता था। उसके हथियार,खाने -पीने के बर्तन आदि सभी पत्थरों के बने हुए होते थे ।यहाँ तक कि डाक्टरों के शल्य क्रिया ,प्रसव आदि के यंत्र भी पाषाण निर्मित ही होते थे। इसलिए उसे इतिहासकारों ने 'पाषाण काल' की संज्ञा से अभिहित किया।बाद में क्रमश लौह युग, ताम्र युग आदि मानव के विकास क्रम से आते - जाते गए औऱ इसी क्रम में वर्तमान आधुनिक युग भी आ गया।
हमारे कथन का मुख्य मंतव्य 'पाषाण युग' से है। उस समय असभ्यता में हम पाषाण युग में जी रहे थे।परंतु आज हम सभ्यता (?) में पाषाण युग में जी रहे हैं। उस समय भी हमारे हथियार पाषाण के बने हुए थे और आज अणु ,परमाणु, हायड्रोजन , जीवाणु , वायरस बम के युग में रहते हुए भी पाषाण को अपना दैनिक जीवन का मुख्य हथियार मान ही रहे ,उसका बखूबी प्रयोग करते हुए प्रवीणता हासिल करने में लगे हुए हैं। माना कि हम और आप न सही ,किन्तु कुछ तथाकथित 'शांतिदूत' (??) उसे अपने जीवन का मुख्य अंग मान रहे हैं।
आए दिन टी वी ,समाचार पत्रों और सोशल (शोषक नहीं) मीडिया पर देख ,पढ़ और सुन रहे हैं कि कभी जम्मू -कश्मीर में ,कभी अलीगढ़, फ़िरोज़ाबाद, मुरादाबाद , हाथरस, पश्चिम बंगाल आदि में पाषाण प्रयोग कर कभी पुलिस ,कभी आम जनता ,कभी अपने पड़ौसियों ,कभी बाजारों में पत्थरों की टकराहट और तज्जन्य खून - खराबे के अनचाहे नज़ारे दिखाई दे ही जाते हैं।इस पाषाण प्रयोग के मामले में महिलाएँ भी पुरुषों से कम नहीं है। नई पीढ़ी तो उन सबकी उस्ताद बनकर ही प्रकट हो रही है।अभी कल ही की बात है कि एक शनिदेव मंदिर के बाहर प्रांगण में कुछ पुरुष ,लड़के ,लड़कियाँ और महिलाएं ज़बरन मस्ज़िद बनाने के लिए पत्थर बाजी के लिए तैयार खड़े हुए थे। यह घटना जिला बरेली की बहेड़ी तहसील के एक गाँव की है।
अब पूरी तरह लगने लगा है कि अति सभ्यता की हदें भी टूटने लगी हैं।पाषाण प्रियता का ऐसा 'महोत्सव (?) यदा कदा नहीं ,आए दिन अखबारों की प्रमुख सुर्खियाँ होता है।वर्तमान कालीन आदमी ,जो अपने को इंसान भी कहता है;की रक्त पिपासा का बखान कहाँ तक किया जा सकता है?
यह भी कहा जाता है कि आदमी पहले पशु है, बाद में इंसान। यह बात भी आज सोलहों आने, चालीसों शेर, सही सिद्ध होती प्रतीत नहीं हो रही, सही सिद्ध हो चुकी है।आदमी की देह में कौन सा भेड़िया अँगड़ाई ले रहा है , कहा नहीं जा सकता।पहले शेर ,चीते, बघर्रे, भेड़िये से आदमी डरता था ,पर आज तो बैल की खाल ओढ़े हुए किस खाल में भेड़िया बैठा है, कहा नहीं जा सकता।आज गाँव, नगर ,कस्बा ,महानगर ही जंगल के पर्याय बन गए हैं। अब जंगल ढूँढने की कोई आवश्कता नहीं रह गई है। अब तो वह अपने मोहल्ले, पड़ौस में ही शिकार कर लेता है। उसके हाथ में पत्थर जैसा अचूक हथियार जो लग गया है।भले ही गोली का निशाना चूक जाए ,पर पत्थर का नहीं । पत्थर रखने या फ़ेंकने के लिए किसी लाइसेंस की भी आवश्यकता नहीं है। जितने चाहे इकट्ठे करो, घर की छतों पर ,घरों में ,दरवाजे पर, सड़क पर ;कोई पूछने वाला नहीं। कोई पुलिस आदि के छापे का डर नहीं।कोई साज सँभाल भी नहीं। एक बार खर्च हो जाए, तो फिर नए नहीं खरीदने। जैसे पहले वाले आ गए ,वैसे और भी आ जाएंगे ।उनकी कोई सुरक्षा भी नहीं करनी। वे भी न मिल सकें ,तो अपने जूते चप्पलों से भी काम लिया जा सकता है।
आज वही आदमी प्रागैतिहासिक काल से भी पीछे जाकर इतिहास को आन, बान और शान से पत्थर बाजी के हुनर में पारंगत हो गया है।जिसके किसी भी तरह कम होने की आशा नहीं है।एक कहावत कही सुनी जाती थी कि ' क्या तुम्हारे दिमाग़ में गोबर भरा हुआ है?' जो इतनी सी बात भी नहीं समझते! विचारणीय है कि गोबर भरे होने पर उसमें कुछ घुसने की संभावना शेष बची हुई रह सकती है! क्योंकि गोबर का सम्बंध पहले गाय से ही है , बाद में किसी और से होगा। हमारा देश गाय, गोदुग्ध, गोरस और अंत में गोबर प्रधान भी है। गोबर की महिमा पावनता लिए हुए है। जिससे घरों के फर्श और दीवारों की लिपाई -पुताई भी की जाती थी । जहाँ घर के आँगन कच्चे हैं ,वहाँ आज भी यह पावन परम्परा चली आ रही है।इसलिए यदि किसी के मष्तिष्क में गोबर भी भरा हुआ हो तो चलेगा ,किंतु जिस 'गौ-शत्रु' के दिमाग में पत्थर भरे हों ,तब तो उसमें कुछ भी घुस पाने की क्षमता ही कहाँ शेष रह पाती है? वहाँ भरे हुए तो पाषाण ही हैं न ! जो अंदर भरा है ,वही तो बाहर निकल कर आएगा। और वही बरसाएगा भी। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि देश ,दुनिया और समाज का कुछ हिस्सा अभी भी पाषाण युग में जी रहा है औऱ आगे भी अपनी पाषाण -वृत्ति को और भी पाषाण बनाने में लगा हुआ है।
🪴 शुभमस्तु !
११.१०.२०२१◆९.१५ पतनम मार्तण्डस्य।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें