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✍️ शब्दकार©
🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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'सेवा' में हर मनुज का,होता प्रमुख विचार।
दुखी और नर श्रेष्ठ को,सुख देना ही सार।।
अपने ही संतोष हित, 'पूजा' करते लोग।
अभिरुचि सारी तृप्त हो,भक्ति कला का योग
बँगला में श्री शब्द को,कहते कोविद 'श्रील'।
'श्रील' नहीं,अश्रील वह,रूपांतर अश्लील।।
'श्री' का जहाँ अभाव है, कहलाता अश्लील।
श्री युत होने के लिए,तृण भर करें न ढील।।
शुचिता, शोभा,तरुणिमा,यौवन सम्पति नाम
उन्नति,कांति, प्रसन्नता,'श्री'के अर्थ ललाम।।
एक दूसरे पर नहीं, हो निष्ठा का भाव।
कामुकता अश्लील वह,विलसित हो उर घाव
मिले जहाँ संस्कार का,होता पूर्ण अभाव।
वह भी है अश्लील ही,जगता लज्जा-चाव।।
रतिक्रीड़ा के काल में, कामुक वार्तालाप।
श्लील सदा माना गया,गुण ही मानें आप।।
कभी-कभी अश्लील भी,होता सद्गुण मीत।
प्रणयावधि में प्रेम का,बजता जब संगीत।।
प्रणय युगल का ही सदा, होता कब अश्लील
क्रिया वचन संवाद शुभ,गहरी रस की झील
सेवा, पूजा,प्रेम का,'शुभम' सत्य परिणाम।
सबके साधन पृथक हैं, अनुपम पावन धाम।
🪴 शुभमस्तु !
१७.१०.२०२१◆७.३० पतनम मार्तण्डस्य।
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