शनिवार, 9 अक्तूबर 2021

विरोध देशद्रोह नहीं है! 🐵 [ अतुकांतिका ]

 

■■◆■■◆■■◆■■◆■■◆

✍️ शब्दकार ©

🙉 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■■◆■■◆■■◆■■◆■■◆

सबका सबसे 

विचारों का मेल ,

न आवश्यक है

न अनिवार्य है,

फिर क्यों तुम्हारी हर बात

हमें शिरोधार्य हो ?

मत समझो अपने को साध्य,

तुम मात्र एक 

मशीन का पुर्जा हो ,

उपयोग के लिए साधन हो।


मत बनो निरंकुश,

हटाओ अपने सब अंकुश,

सुचारु नियंत्रण ही करें,

तुम्हारी थोपी हुई 

बातों से कोई क्यों डरें।


मत भिन्नता हो सकती है

दो मित्रों में भी,

 पति के साथ

 एक छत के नीचे रह रही पत्नी से भी,

फिर क्यों करते हो आशा,

अपने विरोधियों से ,

वे तुम्हारी बातों का

समर्थन करेंगे ?

तुम्हारे अनुयायी बनेंगे?

वे विरोधी ही तो हैं,

पर देशद्रोही नहीं!

विरोध देशद्रोह नहीं होता।


अपने को सभी के ऊपर

थोपने की मानसिकता

निस्संदेह तानाशाही है,

और सुनो ,

जहाँ लोकतंत्र है

वह भी नष्ट हो जाता है,

जो अब बचा भी कहाँ  है !

अपने दायित्व से बचने का

तरीका भी खूब निकाला है,

देश के साथ -साथ 

अपना ज़मीर भी

बेच डाला है।


गए वे दिन जब 

होली खेली जाती थी,

दिवाली मनाई जाती थी,

अब न रंग हैं,

न उजाला है,

देश को बेचकर देश का

निकाला डाला

 खूब दिवाला है।


तुम्हारी अंधी जमात में 

क्या सभी देशभक्त हैं?

चमचे कभी

 देशभक्त नहीं होते,

वे सत्ता के लुढ़कते 

पारे के सँग हैं

बेपेंदे  के लुढ़कते लोटे ।


क्या कभी किसी के

दिल को टटोला है?

न दो वक्त की रोटी है,

न टूटा खटोला है! 

निरंकुशता, उद्दंडता,

बहरापन!

नहीं है तुम्हारे भीतर

कोई गहरापन ,

कोई नहीं है दूध का धुला,

दागों से भरा हुआ 

तुम्हारा गात,

कैसे हो सकता है

हमें या किसी को

आत्मसात।


शेर की खाल ओढ़े हुए

 तुम निकल पड़े हो,

विरोधियों का विनाश

करने को अड़े हो,

देश को बचाने की

चिंता में 'शुभम'

विचारक ,कवि, विश्लेषक

चिंता में गड़े हैं,

धर्म औऱ मज़हबी

आग में सुलग रहा है

मेरा देश!

और उधर ठगा जा रहा है

आम को चूसा जा रहा है,

 और कागों ने धर लिया है

अब हंसों का वेश।


🪴 शुभमस्तु !


०८.१०.२०२१◆२.४५ 

पतनम मार्तण्डस्य।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...