बुधवार, 6 अक्तूबर 2021

वर्तमान जन - यथार्थ 🐠 [ कुंडलिया ]


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✍️ शब्दकार ©

🐠 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                        -1-

भूला निज माँ-बाप को,मिले न उसको राह।

भाग्य  नहीं उसका  भला,रहे अधूरी  चाह।।

रहे  अधूरी  चाह,  कर्म   वह खोटे   करता।

दाने को मुहताज, भूख से व्याकुल  मरता।।

'शुभम' दुखों की सेज,हवा का बने बगूला।

पछताए दिन- रात,पिता- माता निज भूला।।


                        -2-

छोटा-सा  जीवन मिला,करता नहीं  विचार।

भेदभाव  में  लीन है,  उर  में  भरे   विकार।।

उर   में  भरे   विकार, अहं  में भारी   अंधा।

पहुँचा मरघट-धाम,पकड़ औरों का कंधा।।

'शुभम' न  जाती ऐंठ,फूलकर होता  मोटा।

बनता सबसे श्रेष्ठ,किसी से क्यों हो छोटा??


                        -3-

चमड़ी   गोरी  श्रेष्ठ है,  कहता स्वयं   महान।

जो काले वे निम्न हैं, सब मजदूर   किसान।।

सब  मजदूर   किसान,हमारे सेवक    सारे।

हम  उनके   सिरमौर,  चाँद सूरज हम तारे।।

'शुभम' चाटता रोज,पकाई उनकी   रबड़ी।

छुआछूत  की गंध, घिनाती काली  चमड़ी।।


                        -4-

जाती रहती जाति तब,जब लेता  है  खून।

तब मानव,मानव दिखे,नहीं भेड़ की ऊन।।

नहीं  भेड़  की  ऊन,वर्ण  चूल्हे  में   झोंके।

चढ़कर ऊँचे  मंच, जातिगत भाषण  भौंके।।

'शुभम'खून का रंग,लाल,धी तव  मदमाती।

जाति  वर्ण  का  रोग,हटा बीमारी    जाती।।


                        -5-

अपने  भारत  देश का ,गिरता नित्य सुधार।   

चिंता का कारण बना, सकता कौन उबार।।

सकता   कौन  उबार, जाति वाले    संबंधी।

पढ़े -लिखों की सोच,क्षुद्र मति धारी गन्धी।।

'शुभम' धुरंधर  भीम, दिखाते ऊँचे   सपने।

कवि कवयित्री मीत, जाति में खोजें अपने।।


🪴 शुभमस्तु !


०६.१०.२०२१◆४.३० पतनम मार्तण्डस्य।

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