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✍️ व्यंग्यकार ©
🙊 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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मैं ऐसी कोई नई बात कहने नहीं जा रहा हूँ।मैं मात्र वही कहना चाह रहा हूँ ,जो अब तक जमाने में होता चला आ रहा है।यद्यपि यह कोई परंपरा नहीं है कि अपना सुत चाहे कितना बड़ा अपराधी, पापी,
भृष्ट ,हत्यारा, चोर,क्रूर,धूर्त या अज्ञानी हो ,फिर भी उसका पिता या माता उसे बुरा नहीं मानते।और न ही किसी औऱ की दृष्टि में मानने देते हैं।इसके लिए चाहे कितने ही बड़े सत्य (सत) की हत्या करनी पड़े ;वे सहर्ष करेंगे।इसके लिए चाहे कितने ही
निरपराधों को शूली पर चढ़ाना पड़े,अवश्य चढ़वाएँगे
। पर अपने सुत के बुत पर भी आँच तो क्या !उसकी गर्म गर्म लपट भी नहीं आने देंगे।
अब आप कुछ हजारों वर्ष पहले के अतीत में उतर जाइए।द्वापर और त्रेता युग
की संधि वेला में महाभारत को ही सामने रख लीजिए।जन्मांध धृतराष्ट्र महाराज को
अपने सौ के सौ पुत्र अत्यंत
प्रिय थे।अपने पिताश्री की
'काली' भावना की रक्षा के लिए पांडवों का अस्तित्व समाप्त करने के उद्देश्य से उन्होंने क्या कुछ नहीं किया?
जब किसी की संतति चाहे वह महाराजा की हो या आम आदमी की; ऐसी संतान किसे प्रिय नहीं होगी। प्रिय ही नहीं ,प्रेय भी।(वासना से प्रफुल्लित होती हो ,वही प्रेय है।)
एक बहुत पुरानी कहावत है:
'बाप पर पूत नस्ल पर घोड़ा,
बहुत नहीं तो थोड़ा - थोड़ा।'
इससे स्पष्ट है कि संतान में पिता के गुण बहुत ज़्यादा नहीं तो थोड़े -थोड़े तो आते ही हैं। यदि न आएँ तो पिता की असली संतान होने में भी खटका।इसलिए वे आ ही जाते हैं। आ ही जाने हैं। इसमें कोई छूट नहीं हैं। अन्यथा बाप को भी अपने औरस की औरसता पर से विश्वास हटने लगता है। पर इस बात का प्रचार भी तो नहीं कर सकता। यदि करे तो जग हँसाई होती है। करे भी तो क्या करे? तब उसे अपनी बनियान , कुर्ता या क़मीज़ के नीचे एक- दो बटन खोलकर झाँक लेना ही पड़ता है।एक बात और ; वह यह है कि अच्छाइयाँ भले अवतरित हों या न हों ; बुराइयाँ तो आना अनिवार्य है। ये काला रंग (बुराई) ही ऐसा है ,जो सदा सफ़ेद रंग (अच्छाई) को डॉमिनेट (हावी)करता है। अच्छाइयाँ
दब जाती हैं,और बुराइयाँ अपने रुतबे की बहार बिखेरने लगती हैं।
आज तक के प्रायः सभी बापों ने अपनी औलादों के काले कारनामों के ऊपर कालोंच की पुताई से सफ़ेद बनाने की असफल कोशिश की है।यह बात अलग है कि वे कितने सफल हुए।परन्तु सत्य तो राम का नाम अंकित कराए हुए ऐसा पाषाण है जो ऊपर तैर ही जाता है औऱ सुत का काला पत्थर डूब ही जाता है। सदा सुत से बड़ा सत ही होता रहा है , आज भी है औऱ भविष्य में भी रहेगा।
प्रेय के साथ श्रेय की चर्चा भी कर ली जाए। श्रेय वह है ,जिससे आत्मा प्रफुल्लित होती है। पर यहाँ आत्मा की चिंता करता ही कौन है भला!
सब अपनी वासना को खुश करने में जुटे हुए हैं। भले ही आत्मा की हत्या हो जाए(जो की नहीं जा सकती ; क्योंकि वह अजर ,अमर और अविनाशी है।) वासना को खुश करने का ही परिणाम है कि आदमी अपने सियासती
रसूखों का वास्ता देकर काले झूठ की रक्षा हेतु रात दिन एक कर देता है। चाहे इसके लिए उसे डॉक्टर ,वकील, पुलिस को उत्कोच- दान से संतुष्ट करना पड़े ! आज के युग में भय ,आतंक, ब्लैकमेलिंग जैसे अनेक कितने ही बड़े - बड़े 'अणु बमों' की खोज हो चुकी है, जिससे बड़े -बड़े सत्यों के गले में पत्थर बाँध कर पतन के खारी समुद्र में डुबाया जा सकता है।इसका भी अपना एक इतिहास बन रहा है।जो
बिना लिखे हुए भी श्याम अक्षरों में अपना अमिट प्रभाव आगामी पीढ़ियों पर
छोड़ता रहेगा।
काव्य - शास्त्र के अनुसार 'सत' और 'सुत' का मात्रा भार बराबर ही है। पर भौतिक दृष्टि से सुत की टाँग
में पासंग जो लटका हुआ है, जो 'सत' पर भी भारी पड़ जाता है। जो 'सुत' के 'सुतत्व' की महिमा को बहुगुणित कर देता है।आज के इस कलयुग में 'सत' पर 'सुत' भारी है।किसी दूसरे महाभारत की तैयारी है। सत का सत्व निचोड़ा जा चुका है। बचे हुए भूसे को
खाकर आदमी महामारियों से पिसा जा रहा है, और मजे की बात ये है कि आरोप कहीं औऱ ढूँढा जा रहा है।'सत' की गति नहीं ,दुर्गति
किसे नहीं दिख रही है। पर 'सत' से पहले अपने 'सुत' के
अस्त होते हुए 'असत' की रक्षा जो करनी है ! समय साक्षी है। पर आदमी तो
सतभक्षी है।
🪴 शुभमस्तु !
०९.१०.२०२१◆७.३० पतनम मार्तण्डस्य।
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