मंगलवार, 5 अक्तूबर 2021

हे मृगनैनी ! 🚤 [ मुक्तक ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🚤 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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हे     मृगनैनी  !   बाले     तेरे;

नयन - तीर  हैं  पैने    कितने!

सरि के  भीतर  लक्ष्य साधतीं;

हम   हैं   हैरां   भारी   इतने!!

अपनी तरनि बिठाकर हमको;

पार लगा दो  'शुभम'  नदी  से, 

मत्स्य - बेध मत करो तीर से,

हमें बेध   डाला   है तुमने!१।


दृष्टि   हुई     एकाग्र   तुम्हारी;

जल के तल पर मादक बाला!

हिंसा करो   नहीं  मछली की;

घायल उर लख चल मधुशाला,

नाव न खो दे चल पथ अपना;

भटक न   जाओ  सोचा मैंने,

एक दृष्टि   जो इधर  घुमाओ;

बरस रही दृग से ही हाला।२।


तुम्हें  देख  हे  रमणी!  बाले!!

वन की   शोभा  लजा रही है,

चली अकेली वन-  प्रान्तर में;

नाव लिए प्रिय फ़िजा बही है,

लक्ष्य किसी मछली पर तेरा;

नहीं  डगमगाए   तव    नैया,

एक पंथ  दो   काज  तुम्हारे;

लगती करनी  हमें  सही  है।३।


पथिक  नहीं  हैं साथ तुम्हारे;

अपने सँग  में हमको   ले लो,

नाव  लिए  आखेट  कर रहीं;

आओ जल में सँग   में खेलो,

काम  नहीं  ये  तीर  चलाना;

हे मधुबाले !     हे रसरंगिनि!

आओ 'शुभम '   किनारे बैठें,

पंथ अकेली तुम क्यों झेलो?४।


रूप  तुम्हारा   देख मत्स्य भी;

हो  जाएँगी    मोहित    सारी,

तुम  बेधड़क   बेध   डालोगी;

कष्ट   रहेगा    हमको   भारी,

पकड़ो  चप्पू 'शुभम' हाथ में;

आओ  सरिता   पार करा दो,

देख प्रकृति भी रूप कामिनी,

वन के   पेड़  लताएँ   हारी।५।


🪴 शुभमस्तु  !


०५.१०.२०२१◆११.००आरोहणं मार्तण्डस्य।

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