शोर हमारी एक आवश्यकता है। बिना शोर के मानव - जीवन अधूरा है।जीवन में रौनक और जीवन्तता लाने के लिए शोर बहुत जरूरी हो गया है। यही कारण है कि हमारे सामाजिक समारोहों में इसे विशेष महत्व प्रदान करते हुए कुछ ऐसे शोर - उत्पादक यंत्रों , वाद्यों तथा आधुनिक विज्ञान द्वाराखोजे गए साधनों को आवश्यक रूप से व्यवस्थित करना हमारी सभ्यता का एक महत्वपूर्ण अंग बन गया है। जब तक मैरिज -होम में डी जे न बजे तब तक दूल्हा - दुल्हन की सात भँवरिया पड़ ही नहीं सकतीं। अगर डी जे नहीं लगवाया तो जीजाजी रूठ जायेंगे। फूफा जी को कौन मनाएगा ? चाहे विवाह - स्थल पर दावत और वैवाहिक कार्यक्रम के समय किसी को कुछ भी सुनाई पड़े या न पड़े , पर डी जे तो बजेगा ही। उस पर अति आधुनिक बच्चे से लेकर किशोर युवा और युवतियां जब तक धमाचौकड़ी नहीं मचाएंगे ,तब तक शादी का कोई मतलब नहीं रह जाता। चाहे और कुछ हो या न हो , पर डी जे के बिना शादी का कोई अर्थ नहीं। इसी प्रकार की स्थिति बैंड -बाजों की भी है। क्योंकि उसमें जब तक हल्ला - गुल्ला , भाभियों, देवरों, रिश्तेदारों द्वारा नोट दिखा -दिखाकर डांस नहीं किया जाएगा , तब तक शादी का काम अधूरा ही है। चाहे नाचते -नाचते सवेरा हो जाये, भले ही भाँवरों के भँवर में गोते लगाने से दूल्हा -दुल्हन वंचित हो जाएं। मुहूर्त निकल जाए , पर उन्हें क्या ? नाचने का ऐसा अवसर बार -बार कब मिलने वाला है। शादियाँ तो होती ही रहती हैं।
इसी प्रकार कथा -भागवत या रामायण पाठ में फिल्मी गानों की सुबह शाम आरती होना भी एक शोर - सभ्यता का एक आवश्यक अंग है। कोई सुने या समझे नहीं पर बजाना ज़रूरी है। यही कारण है कि हमारी आधुनिक शोर - सभ्यता निरंतर विकास के मार्ग पर अग्रसर होती जा रही है। बड़े -बड़े पढ़े -लिखे, नेता , मंत्री , अधिकारी किसी को कोई आपत्ति नहीं होती । वे भी आते हैं और सोफे पर बैठकर शोर - सभ्यता का मौन समर्थन करते हुए कारों में बैठकर पलायन कर जाते हैं। यहाँ कोई नियम नहीं , कोई कानून नहीं चलता ।
शोर, शोर - सभ्यता की शान है। आख़िर इंसान भी तो इंसान है! उसे भी जीना है। उसके जीने के आवश्यक तत्वों में शोर की विशेष भूमिका है। आख़िर खुशी का मौका है , जब तक कुछ अच्छा - खासा हल्ला- गुल्ला न हो तो समारोह का आनन्द ही क्या ? गाड़ियों में चाहे हार्न भले ही न हो , शादी में बैंड - बाजा और डी जे प्रबंधन एक आवश्यक तत्व है। विवाह -समारोह किसी राष्ट्रीय पर्व से कम महत्वपूर्ण नहीं है। जब 15 अगस्त और 26 जनवरी या अन्य अवसरों पर को तोपें दागी जा सकती हैं ,तो क्या दूल्हे राजा के रिश्तेदार अपनी दुनाली की शान दिखाते हुए धाड़ - धाड़ नहीं कर सकते।कोई मरे या जिए ,उन्हें क्या ? चिल्लाती रहे सरकार और प्रशासन कि हर्ष -फायरिंग मत करो , मत करो। पर क्या यदि वे ऐसा नहीं करेंगे तो उनकी शान को बट्टा नहीं लग जाएगा? यदि जीजा , फूफा , चाचा ,ताऊ की शान को बट्टा लग गया , तो ये तो अच्छी बात नहीं होगी न ! इसलिए वे हर्ष - फायरिंग जरूर करेंगे। सरकार या प्रशासन क्या देखने आ रहे हैं ! इसलिए खूब मनमानी करो। कानून से न डरना हमारी बहादुरी है। जिसे हम कानून तोड़कर दिखाते हैं। नेता जी तो इस मामले में सबसे आगे हैं।अरे भाई! वे कानून के बाप हैं, क़ानून उन्हें तोड़ना ही है। उन्हें क़ानून की हत्या करने में मुँह पर रूमाल बांधने की भी जरूरत महसूस नहीं होती। क्योंकि क़ानून तोड़ने से उन्हें खुशबू के आनन्द का अहसास होता है। गर्व की अनुभूति होती है। सामान्य जन के दर्जे से उच्च दर्जे का इंसान होने का गुरूर होता है।
समय -समय पर शोर का जलवा और जलसा दिखाने के अवसर आते ही रहते हैं। समझदार को इशारा बहुत होता है, सो आप समझदार तो जरूरत से ज़्यादा ही हैं। गाहे बगाहे ऐसे अनेक मौके ढूँढकर शोर का दौर चला ही देते हैं। समझदारी एक बहुत बड़ा प्रमाण यह भी है कि जिस चीज़ से आपकी सेहत को नुकसान होता है, उसे करना और अपनाना अपना अनिवार्य धर्म समझते हैं। जैसे कहा जाता है कि इतने डेसिबल से अधिक की ध्वनि मानव - स्वाथ्य के लिए अहितकर है। पर आपको इससे क्या ? बनी रहे। क्या फर्क पड़ता है। जब आप प्रत्यक्ष रूप में सिगरेट , तम्बाकू, गुटका आदि के चमकीले पेकिटों पर लिखे हुए संदेशों "तम्बाकू खाने से केंसर होता है।" "धूमपान करने से कैंसर होता है।" : को घोंटकर पी जाने की प्रबल शांकरीय -क्षमता रखते हैं ,तो शोर का डेसिबल कौन नापे? इसीलिए डी जे के दुकानदार भी सारी चिंता त्यागकर धड़ल्ले से फुल वॉल्यूम में बजाते हैं। और तो और ऑटो वाले तो किसी की चिंता नहीं करते, और कानफोड़ू ध्वनि में फ़िल्मी गीतों का आनन्द लेते हुए देखे जाते हैं। इस देश में नियम क़ानून की फ़िक्र तो किसी को है ही नहीं। अरे ! आपको पता नहीं देश 15 अगस्त 1947 से ही आज़ाद है। कोई कुछ भी कर सकता है। आज़ादी के असली मायने तो यही हैं। इसलिए यदि भारतीय स्वतंत्र सम्माननीय आदरणीय नागरिक यदि डी जे पर शोर पसंद करते हैं ,तो किसी का क्या जाता है। यहाँ क़ानून तो केवल किताबों में पढ़ने के लिए और वक्त -ज़रूरत काम आने के लिए तो बनाये जाते हैं, अनुपालन के लिए नहीं।'रसीद लिख दी , ताकि वक़्त-ज़रूरत काम आ सके।
धन्य हैं देशवासी औऱ धन्य शोर - सभ्यता के अनुयायी!
जब होनी ही नहीं है कोई कर्रवाई तो खूब डी जे बजाओ मेरे भाई!!
💐शुभमस्तु !
✍ लेखक ©
डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
इसी प्रकार कथा -भागवत या रामायण पाठ में फिल्मी गानों की सुबह शाम आरती होना भी एक शोर - सभ्यता का एक आवश्यक अंग है। कोई सुने या समझे नहीं पर बजाना ज़रूरी है। यही कारण है कि हमारी आधुनिक शोर - सभ्यता निरंतर विकास के मार्ग पर अग्रसर होती जा रही है। बड़े -बड़े पढ़े -लिखे, नेता , मंत्री , अधिकारी किसी को कोई आपत्ति नहीं होती । वे भी आते हैं और सोफे पर बैठकर शोर - सभ्यता का मौन समर्थन करते हुए कारों में बैठकर पलायन कर जाते हैं। यहाँ कोई नियम नहीं , कोई कानून नहीं चलता ।
शोर, शोर - सभ्यता की शान है। आख़िर इंसान भी तो इंसान है! उसे भी जीना है। उसके जीने के आवश्यक तत्वों में शोर की विशेष भूमिका है। आख़िर खुशी का मौका है , जब तक कुछ अच्छा - खासा हल्ला- गुल्ला न हो तो समारोह का आनन्द ही क्या ? गाड़ियों में चाहे हार्न भले ही न हो , शादी में बैंड - बाजा और डी जे प्रबंधन एक आवश्यक तत्व है। विवाह -समारोह किसी राष्ट्रीय पर्व से कम महत्वपूर्ण नहीं है। जब 15 अगस्त और 26 जनवरी या अन्य अवसरों पर को तोपें दागी जा सकती हैं ,तो क्या दूल्हे राजा के रिश्तेदार अपनी दुनाली की शान दिखाते हुए धाड़ - धाड़ नहीं कर सकते।कोई मरे या जिए ,उन्हें क्या ? चिल्लाती रहे सरकार और प्रशासन कि हर्ष -फायरिंग मत करो , मत करो। पर क्या यदि वे ऐसा नहीं करेंगे तो उनकी शान को बट्टा नहीं लग जाएगा? यदि जीजा , फूफा , चाचा ,ताऊ की शान को बट्टा लग गया , तो ये तो अच्छी बात नहीं होगी न ! इसलिए वे हर्ष - फायरिंग जरूर करेंगे। सरकार या प्रशासन क्या देखने आ रहे हैं ! इसलिए खूब मनमानी करो। कानून से न डरना हमारी बहादुरी है। जिसे हम कानून तोड़कर दिखाते हैं। नेता जी तो इस मामले में सबसे आगे हैं।अरे भाई! वे कानून के बाप हैं, क़ानून उन्हें तोड़ना ही है। उन्हें क़ानून की हत्या करने में मुँह पर रूमाल बांधने की भी जरूरत महसूस नहीं होती। क्योंकि क़ानून तोड़ने से उन्हें खुशबू के आनन्द का अहसास होता है। गर्व की अनुभूति होती है। सामान्य जन के दर्जे से उच्च दर्जे का इंसान होने का गुरूर होता है।
समय -समय पर शोर का जलवा और जलसा दिखाने के अवसर आते ही रहते हैं। समझदार को इशारा बहुत होता है, सो आप समझदार तो जरूरत से ज़्यादा ही हैं। गाहे बगाहे ऐसे अनेक मौके ढूँढकर शोर का दौर चला ही देते हैं। समझदारी एक बहुत बड़ा प्रमाण यह भी है कि जिस चीज़ से आपकी सेहत को नुकसान होता है, उसे करना और अपनाना अपना अनिवार्य धर्म समझते हैं। जैसे कहा जाता है कि इतने डेसिबल से अधिक की ध्वनि मानव - स्वाथ्य के लिए अहितकर है। पर आपको इससे क्या ? बनी रहे। क्या फर्क पड़ता है। जब आप प्रत्यक्ष रूप में सिगरेट , तम्बाकू, गुटका आदि के चमकीले पेकिटों पर लिखे हुए संदेशों "तम्बाकू खाने से केंसर होता है।" "धूमपान करने से कैंसर होता है।" : को घोंटकर पी जाने की प्रबल शांकरीय -क्षमता रखते हैं ,तो शोर का डेसिबल कौन नापे? इसीलिए डी जे के दुकानदार भी सारी चिंता त्यागकर धड़ल्ले से फुल वॉल्यूम में बजाते हैं। और तो और ऑटो वाले तो किसी की चिंता नहीं करते, और कानफोड़ू ध्वनि में फ़िल्मी गीतों का आनन्द लेते हुए देखे जाते हैं। इस देश में नियम क़ानून की फ़िक्र तो किसी को है ही नहीं। अरे ! आपको पता नहीं देश 15 अगस्त 1947 से ही आज़ाद है। कोई कुछ भी कर सकता है। आज़ादी के असली मायने तो यही हैं। इसलिए यदि भारतीय स्वतंत्र सम्माननीय आदरणीय नागरिक यदि डी जे पर शोर पसंद करते हैं ,तो किसी का क्या जाता है। यहाँ क़ानून तो केवल किताबों में पढ़ने के लिए और वक्त -ज़रूरत काम आने के लिए तो बनाये जाते हैं, अनुपालन के लिए नहीं।'रसीद लिख दी , ताकि वक़्त-ज़रूरत काम आ सके।
धन्य हैं देशवासी औऱ धन्य शोर - सभ्यता के अनुयायी!
जब होनी ही नहीं है कोई कर्रवाई तो खूब डी जे बजाओ मेरे भाई!!
💐शुभमस्तु !
✍ लेखक ©
डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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