अब क्या है। सब समाप्त हो गया। कितनी रौनक थी। कितनी चहल- पहल थी। रोज -रोज नए -नए आगमन। नए-नए आश्वासन। जोशीले कोशीले भाषण। रंगों की बहार भी। कीचड़ की बौछार भी। लेकिन अपन को क्या ? एक दूसरे की पोल- पट्टी खोल रहे थे। अपने ही मुँह अपनी ही जयकार बोल रहे थे।रस में विष और रिस में शीत चन्दन घिस रहे थे। अपन को क्या ? मज़ा ही मज़ा ! खूब घूमना फिरना , खाना पीना और न जाने क्या क्या ? ऐसे दिन भला बार - बार कहाँ आते हैं! सब कुछ सच - सच बतलाने में तो हम ही शरमा जाते हैं ! कितना भी कहें पर पूरा कहाँ बता पाते हैं।
देखिए तो सही ! झूठ और सच की पहचान ही मर गई। झूठ, झूठ ही न लगे।लगे तो जैसे मिश्री पर माखन सा सजे। अरे भइये ! आज कल के जमाने में सच की उम्मीद ? वह भी आज के इन नेताओं से ? राम ! राम !!राम!!! चील के घोंसले में माँस की आश ? भला ये भी कैसी फरमाइश ? सच बुलवाकर क्या करोगे सियासत का नाश ?
अब वे वादे और वादा करने और निभाने का बिगुल बजाने वाले न जाने कहाँ गए? जैसे चले गए हों गदहे के सिर से सींग ? चले गये हों ज्यों मेढक दल गहरी शीत नींद ! कैसी विचित्र शांति का पसारा है। मुँह को लटकाए हुए हर नेता बेचारा है? चिंतन की घनघोर मुद्रा में खोया हुआ । न जागता हुआ ,न सोया हुआ। जैसे वैशाख के महीने में घूर पर नत ग्रीव बैशाख नंदन । वैसे ही ख़्वावों में खोए हुए ये चाहते भारी - भारी मालाओं से अभिनंदन !
महीना भी वैशाख का ही है मित्रो! देखेंगे आते -जाते हुए नए - नए नेता चरित्रों को ! पर अब वृंदावन सूना - सूना सा है। न रंग है न गुलाल का तड़का है। न कहीं रैली है ।न हमारे वास्ते मधुर - मधुर गुड़ की भेली है। न विकास की बात। न खैरात की बात। न शतरंज की बिसात। न नोटों की बरसात। सब कुछ जैसे ठहर ही गया हो। तालाब के बन्द पानी की तरह। जहाँ मेढक भी जल समाधि में लीन हैं। उछल कूद करती हुई शांत हर मीन है। आम आदमी गर्मियों के आम की तरह पीला हो गया है। वह चूसे जाने के लिए तैयार हो रहा है। आम को तो चुसना ही लिखा है उसकी नियति में।उसे कोई रंक से राव नहीं बनाने जा रहा है। नौकरी करने वाले को नौकरी ही करनी है। चमचों को सदा चिलम ही भरनी है। मक्खन लगाएंगे तो थोड़ा चाट भी लेंगे तो बुरा क्या है! मजदूर को मजदूरी ही करनी है। अपनी मजबूरी की कीमत भरनी है। मरा हुआ हाथी भी लाख का होता है ! सो उनका क्या ? कोई कुम्भ थोड़े ही है , जो बारह साल के बाद आएगा । पाँच बरसों में फ़िर हल्ला मच जाएगा और वृंदावन फ़िर आबाद हो जाएगा।
💐 शुभमस्तु !
✍लेखक ©
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'
देखिए तो सही ! झूठ और सच की पहचान ही मर गई। झूठ, झूठ ही न लगे।लगे तो जैसे मिश्री पर माखन सा सजे। अरे भइये ! आज कल के जमाने में सच की उम्मीद ? वह भी आज के इन नेताओं से ? राम ! राम !!राम!!! चील के घोंसले में माँस की आश ? भला ये भी कैसी फरमाइश ? सच बुलवाकर क्या करोगे सियासत का नाश ?
अब वे वादे और वादा करने और निभाने का बिगुल बजाने वाले न जाने कहाँ गए? जैसे चले गए हों गदहे के सिर से सींग ? चले गये हों ज्यों मेढक दल गहरी शीत नींद ! कैसी विचित्र शांति का पसारा है। मुँह को लटकाए हुए हर नेता बेचारा है? चिंतन की घनघोर मुद्रा में खोया हुआ । न जागता हुआ ,न सोया हुआ। जैसे वैशाख के महीने में घूर पर नत ग्रीव बैशाख नंदन । वैसे ही ख़्वावों में खोए हुए ये चाहते भारी - भारी मालाओं से अभिनंदन !
महीना भी वैशाख का ही है मित्रो! देखेंगे आते -जाते हुए नए - नए नेता चरित्रों को ! पर अब वृंदावन सूना - सूना सा है। न रंग है न गुलाल का तड़का है। न कहीं रैली है ।न हमारे वास्ते मधुर - मधुर गुड़ की भेली है। न विकास की बात। न खैरात की बात। न शतरंज की बिसात। न नोटों की बरसात। सब कुछ जैसे ठहर ही गया हो। तालाब के बन्द पानी की तरह। जहाँ मेढक भी जल समाधि में लीन हैं। उछल कूद करती हुई शांत हर मीन है। आम आदमी गर्मियों के आम की तरह पीला हो गया है। वह चूसे जाने के लिए तैयार हो रहा है। आम को तो चुसना ही लिखा है उसकी नियति में।उसे कोई रंक से राव नहीं बनाने जा रहा है। नौकरी करने वाले को नौकरी ही करनी है। चमचों को सदा चिलम ही भरनी है। मक्खन लगाएंगे तो थोड़ा चाट भी लेंगे तो बुरा क्या है! मजदूर को मजदूरी ही करनी है। अपनी मजबूरी की कीमत भरनी है। मरा हुआ हाथी भी लाख का होता है ! सो उनका क्या ? कोई कुम्भ थोड़े ही है , जो बारह साल के बाद आएगा । पाँच बरसों में फ़िर हल्ला मच जाएगा और वृंदावन फ़िर आबाद हो जाएगा।
💐 शुभमस्तु !
✍लेखक ©
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'
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