मात्र जन्म की तिथि
व माह,
न कोई वर्ष
यह कैसा गोपनीय विमर्श!
एक सचाई
दुनिया से छिपाई,
झुठलाई,
न जतलाई ,
न बतलाई,
पर सचाई तो है
सचाई,
कैसे जाएगी छिपाई?
समय ,तिथि ,
माह और वर्ष के बिना,
किसने सीखा है जीना!
सचाई छिपाने में ही
जीती हैं हसीना,
जताने में निज सचाई
छूट जाता है पसीना।
माह , वर्ष छिपाने से
न लिखने न लिखाने से
क्या यौवन ठहर जाता है ?
पर माह वर्ष
समय तिथियों का पहिया
स्वगति से आगे।
बढ़ ही जाता है !
स्वगति से आगे।
बढ़ ही जाता है !
न वक़्त थमता है
न उम्र थम पाती है,
चिकनाई ऊपर की
स्वतः खुरदरी
हो ही जाती है!
बढ़ते हैं कोण
शनै:शनै:
समतलता की ओर,
उषा की किरण
अस्त संध्या की ओर,
पर उन्हें गोपन की
हर बात रुचती है,
अंतःकरण में एक
धुँधली शाम उठती है।
उन्हें प्रकृति की
सौगात है गोपन,
फिर कहीं ठहर
नहीं पाता यौवन !
भेद खुल ही जाता है
प्रवेश -काल में,
मिलानी पड़ती है लय
तिथि माह साल में!
नहीं बचता दुधमुँहापन
षोडशी कहलवाता यौवन!
पर्वत झरते हैं,
सरिता बन बहते हैं,
सागर से मिलने को
आतुर अति रहते हैं,
लावण्य को सौंप सागर को
निर्मल बादल बन उमड़ते हैं।
क्या बिना तिथि माह वर्ष के,
बिना शैशव , कैशोर्य-यौवन,
वार्धक्य के उत्कर्ष के!
पूर्णता मिली है उसे?
सबकी है अपनी महत्ता
किसलय भी बनता है पत्ता,
पतित होता है धरा पर
पीत पत्ता!
पुनः किसलय प्रस्फुटन होता
थमता नहीं है कभी
तिथि माह वर्ष का सोता !
आत्म प्रवंचना है ये
कृत्रिम गोपन,
शैशव का उच्च शिखर है
यौवन,
फिर तो उतार ही उतार,
अवतार ही अवतार,
ढलान ही ढलान,
वार्धक्य की ढलान,
नवजीवन का उद्गार ।
💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🌱 डॉ. भगवत स्वरूप
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