शनिवार, 27 अप्रैल 2019

दिल [अतुकान्तिका]

दिल ?
जी हाँ दिल!
जो कभी होता था 
वक्ष के वाम पक्ष में
अब नहीं मिलता!
खोंसा हुआ मिलता है
किसी वामा के जूड़े में,
घर के कचरे में 
घूरे में किसी कूड़े में।

सिरहाने लगा तकिया
सोफे की सीटों पर,
बच्चों के खिलौनों में
किसी मेले ठेले पर,
राह चलते हुए 
फुटपाथों पर,
अपनों के सिवाय
किसी अनमेल हाथों पर।

चुराओगे कैसे दिल 
वहाँ होगा ही नहीं,
ढूँढोगे तुम जहाँ
होगा वह और कहीं !

बाज़ार में भी
दिल बिका करते हैं,
अब वे लोग कहाँ
जो चिंता दिल की
किया करते हैं।
दिल उछालने की 
कोई गेंद हो जैसे,
दीवाल में लगा लेने की
कोई सेंध हो जैसे।
अब कहाँ भला
दिल टूट सकता है!
फ़ाइबर से बना है
नहीं रूठ सकता है।

कभी इसको 
कभी उसको 
दिया करते हैं लोग,
अब और ही तरह के
होते हैं दिलों के रोग,
इनमें कहाँ बहता है
मानव का लहू लाल,
मशीनीकरण का 
देखा है  आधुनिक कमाल!
ये काँच प्लास्टिक के
बने होते हैं,
टूट जाने पर 
दूसरे भी सुलभ होते हैं,
आवाज़ भी होती है
अब टूटे दिल की,
सुनाई पड़ती है दूर तक
ध्वनि  टूटते दिल की।

दिल ही का तो खेल था
मानव में ,
मानव - जीवन में,
दिलों का ही तो
मेल था मनुज के 
जीवन -धन में!
 अब क्या 
एक मशीन है 
चलती फिरती,
बटन से बंद चालू
रुकती टिकती,
संवेदनाएं  कृत्रिम वक्रिम,
चरणों से घुटने 
घुटने से पेट तक  आईं,
न आँखें झुकीं
न तनिक शर्म भी आई,
बस हल्की सी 
एक जीभ लहराई,
'  नमस्ते। '
 'नमस्ते !'
शेष औपचारिकता ही,
न दिल 
न दिल की कोई
बात ही भाई!
बनावटी दिलों की
यही सब सुंदरताई!

क्या ये दिल का
मामला है ?
वक़्त का तकाज़ा है,
स्वार्थ की वाह वा है।

रह गया पीछे कहीं 
दिल ,
साँचा दिल,
अब तो बस दाँतों की
दिखावटी खिलखिल।
निकाल डालो 
शब्दकोषों से
शब्द 'रहमदिल'!

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
डॉ. भगवत स्वरूप  'शुभम'

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