रविवार, 28 अप्रैल 2019

विरह [ग़ज़ल ]

वे   जब   आने   वाले   होते।
तन -मन रिसते रस के सोते।।

टेक  हथेली   पर   मैं   ठोड़ी,
लेती   यादों   के  तल  गोते।।

 छिप-छिप पढ़ती पाती उनकी,
कोई न   देखे   हँसते   रोते।।


लजियाती बलखाती बाला,
चौंक   जागती  सोते -सोते।।

थोड़ी  ऊँची   करके   बाती,
पतियाँ  पढ़ती    रोते -रोते।।

कही  न  जाए   मौन  वेदना ,
बच जाती   बावरिया  होते।।

किस्मत  ऐसी  साथ नहीं वे,
'शुभम' बीज दोनों संग बोते।।

💐 शुभमस्तु!
✍रचयिता ©
💖 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...