कीचड़ -रीति बड़ी सुखदाई।
प्रतिपक्षी पर नित लुढ़काई।।
स्वयं दूध में गोता खाओ।
बढ़चढ़ उनकेदोष गिनाओ।।
आग लगाकर दूर खड़े हो।
दुनिया समझे तुम्हीं बड़े हो।।
कीचड़ की महिमा जग न्यारी
कमलम्मा कहे दुनिया सारी।।
रात -दिवस नित बारह मासा।
कीचड़ बिन नहिं आवे साँसा।
निज चेहरे पर डाल मुखौटा।
लिए हाथ कीचड़मय सोटा।।
पिचकारी में पिच पिच पंक़ा।
बजता कमलम्मा का डंका।।
जिसकी झोली जो भी होता।
वैसे बीज धरा में बोता।।
अपना कचरा उसके द्वार।
यही स्वच्छता का आधार।।
अपने सद्गुण आप बखानें।
अँगुली पर-छिद्रण को तानें।।
यूँ ही नहीं जनार्दन जनता।
भले न नेता उसकी सुनता।।
अवसर पर वह रंग दिखाती।
नेता की औकात बताती।।
तख़्त ढहा तख़्ती कर देती।
मोदक - बूंदी जाती रेती।।
जनता मौन न समझो गूँगी ।
देगी बजा तुम्हारी पूँगी ।।
कीचड़ में सदगन्ध नहीं है।
करे जनार्दन 'शुभम'सही है।।
💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🌹 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें