बुधवार, 10 अप्रैल 2019

जनता ही जनती तुम्हें [कुण्डलिया]

जनता   ही जनती तुम्हें,
वह      महतारी     बाप।
उसके   चरणों  में  रखो,
नेताजी    सिर     आप।।
नेताजी     सिर     आप ,
वही     उद्धार     करेगी ।
धोखा      दोगे      अगर,
न   पीड़ा  कभी   हरेगी।।
दिखता   भोला   आज,
बाद में  क्यों  तू तनता।
हँड़िया   निर्मित   काठ ,
चढ़ाती पुनः न जनता।।

जनता    ही  भगवान है,
ले      उसका    वरदान।
धो -धो उसके चरण पी,
धन्य  स्वयं   को   मान।।
धन्य   स्वयं   को  मान,
जीतकर  मत इतराना।।
रहना  निज    औक़ात ,
शेर बनकर मत खाना।।
जनता     भोली   गाय ,
फ़रेबी     सिर ही  धुनता।
छल- छन्दों  का  जाल ,
काटती मत से जनता।।

जनता के दुःख भूलकर ,
इतराता      क्यों    यार ।
पाँच  वर्ष    के   बाद में ,
आएगा    पुनि    द्वार।।
आएगा   पुनि      द्वार ,
रगड़ने  नाक  यहीं पर।
रोने -धोने भीख माँगने,
इसी     जमीं       पर ।।
करो        मुखौटे    दूर ,
न  इनसे  कारज बनता।
परख  - शक्ति   सम्पन्न ,
न समझो मूरख जनता।

जनता को मत समझना,
तू    रेवड़      की    भेड़।
इतनी    भी   अंधी  नहीं ,
कर     देगी     ये    रेड़।।
कर     देगी     ये     रेड़,
न चमचे  भाग्यविधाता ।
अंधभक्त पीछे   चलने -
में        ही       इतराता।।
हाँ जी!  हाँ जी ! निपुण,
उन्हीं  की   नेता सुनता।
पलटा      खाती   एक -
रात में गुमसुम जनता।।

जनता    तेरी  स्वामिनी,
वह   मालिक    तू दास।
प्रजातंत्र   में   कर  दिया,
इसका       सत्यानाश।।
इसका         सत्यानाश,
जीतकर  बनता स्वामी।
छूकर     माँ   के  चरण,
खोदता   घर  में बांबी।।
सोकर     संसद - सेज,
नहीं  जनता की सुनता।
अहंकार     में       लीन ,
प्रायश्चित करती जनता।।

💐 शुभमस्तु !
✍ रचयिता ©
डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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