शनिवार, 3 अगस्त 2019

कोई देख तो नहीं रहा? [ व्यंग्य ]

   आज आदमी को कितनी आज़ादी मिल गई है कि ग़लत कृत्य करने से पहले पहले के आदमी की तरह यह सोचने विचारने की कोई भी आवश्यकता नहीं है कि कोई देख तो नहीं रहा है? बस अब तो कर डालो। जो होगा, सो देखा जाएगा। पहले लोग परदा तलाश करते थे। फिर भी उस परदे के पीछे जाकर एक बार पुनर्विचार भी किया करते थे कि करें या न करें। मन और आत्मा के अंतर्द्वंद्व के बीच फैसला करना पड़ता था।लेकिन आज का आदमी इतना बिंदास हो गया है कि वह पहले तुरन्त निर्णय करता है और बिना -सोचे समझे सोचा हुआ कर डालता है।
   'कोई देख तो नहीं रहा?' -का ये पवित्र भाव इतना पवित्र है कि व्यक्ति बड़े -बड़े दुष्कर्म करने से बच जाता है। अब उस बेचारे की व्यस्तता तो देखिए कितनी अधिक बढ़ गई है कि सोचने का वक्त ही कहाँ बचा है? वह अब कठपुतली जो बन गया है! एक ऐसी कठपुतली, जो किसी और के इशारे पर नाचती उछल -कूद करती है। आज का आदमी देख रहा है कि न तो कहीं आत्मा है, क्योंकि उसकी हत्या तो वह पहले ही कर चुका है। अलबत्ता जब आत्मा ही मार डाली गई तो परमात्मा कैसे बच सकता है ? वह तो उसी वक्त मर गया जब आत्मा मरी थी। क्योंकि आत्मा तो उसी परमात्मा का अंश है। ईश्वर अंश जीव अविनाशी। लेकिन वह इस बात को मानता ही नहीं। उसका तो चार्वाक ऋषि का वही एक अटल सिद्धान्त है कि
 'यावतज्जीवेत सुखम जीवेत, 
 ऋणं कृत्वा घृतं पीवेत।
 भस्मीभूतस्य देहस्य 
 पुनरागमनम कुतः, 
 त्रयो वेदस्य कर्तारौ 
 भंड धूर्त निशाचरा:। 
 अर्थात जब तक जीवित रहे, तब तक सुखपूर्वक जिये। ऋण लेकर भी घी पिए। अर्थात अपने सुखोपभोग के लिए जो भी उपाय करने पड़ें, करे। परलोक , पुनर्जन्म औऱ आत्मा-परमात्मा जैसी बातों की चिंता नहीं करे। भला जो शरीर मृत्यु के पश्चात भस्मीभूत हो जाता है ,उसके पुनर्जन्म का प्रश्न ही कहाँ उठता है? तीनों वेदों के रचयिता धूर्त प्रवृत्ति के निशाचर मसखरे निशाचर रहे हैं, जिन्होंने मूर्ख बनाने के लिए आत्मा -परमात्मा, स्वर्ग -नरक , पाप - पुण्य जैसी बातों का भ्रम फैलाया है।।
   जिन लोगों की आत्मा जिंदा है और वे यह भी मानते हैं कि परमात्मा भी सब कहीं विद्यमान है , तो बुरा कर्म करने से पहले वे अवश्य सोच लेते होंगे कि परमात्मा तो देख रहा है। उससे कैसे छिपा जा सकता है? आत्मा भी एक दृष्टा ही है। तब तो दो दो दर्शक हो गए ? अपनी आत्मा से बचकर कहाँ जाओगे! वह सदा कोसती रहेगी। शांति से नहीं उठने-बैठने ,खाने,सोने रहने देगी जब कोई ग़लत काम करने के बाद शांति से जी ही न सके , तो उस 'कर्म' को क्यों करना?
   नास्तिक विचार धारा के संवाहक कर्म विश्वासी नहीं होते। जब उन्होंने परमात्मा और अपनी आत्मा की ही हत्या कर दी , तो सब कुछ नष्ट कर डाला।कर्म ही तो बीज है।वही आगे अंकुरित होकर फ़ल बनता है। जिसके फल वह जीवन और उसके अनन्तर भी पाता रहता है। लेकिन वे तो बीज को भी मारने की असीम क्षमता को धारण करते हैं।वे केवल किसी आदमी की उपस्थिति को ही मानते हैं, यदि किसी आदमी ने नहीं देखा ,फिर क्या है! मौज करो। लेकिन कर्म प्रधान विश्व रचि राखा। जो जस करइ सो तस फ़ल चाखा।। कारण और कार्य का यह अटल सिद्धांत कभी टलता नहीं है।इसमें संशोधन भी नहीं है। सबको अपने -अपने बीज (कर्म) के पौधे के पेड़ देखने औऱ उसकी छाया में बैठने का अनुभव लेना ही होता है।
   सब कुछ जानकर अज्ञान बनना तो मूर्खता के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है, परन्तु आदमी का दुराग्रह उसे उसकी सचाई को नहीं मानने देता।शायद कभी उसकी मरी हुई आत्मा पुनरुज्जीवित होती हो , तो इतना तो अवश्य कहती होगी कि उस वक्त कोई तो देख ही रहा था।लेकिन जब जान बूझकर ही विवेक पर पट्टी कसकर बाँध दी गई हो , तो उसे कौन खोल सकता है भला? लेकिन क्या किया जाए? कि यह भी सच है : हिना रंग लाती है, पत्थर पे घिस जाने के बाद। इंसान को अक्ल आती है ठोकरें खाने के बाद ।  और जब अक्ल आ जाती है तो आदमी अक्ल वन्द हो जाता है , वरना अक्लमन्द ही बना रहता है। और परदे की तलाश में आत्मा की हत्या करता रहता है।ये कथन भी ग़लत नहीं है: सब ते भले वे मूढ़ जन , जिन्हें न व्यापे जगतगति। तथा फूलहिं फरहिं न बेत , जदपि सुधा बरसहिं जलद।। मूरख हृदय न चेत जौ गुरु मिलहिं विरंचि सम
   इसीलिए सूअर सबसे सुखी प्राणी है। जिसे कीचड़ में लूटलुटी लगाते वक्त संसार का सबसे बड़ा सुख हासिल हो जाता है, फ़िर उसे क्या फिक्र कि आलू गोभी , सोना चांदी क्या भाव है? चंद्रयान -2 कहाँ तक जा पहुंचा? या धारा -370 कैसे खत्म हो,? अथवा श्रीराम मंदिर कैसे बने ? वगैरह वगैरह। उसकी कीचड़ -लुटलुटी में इहलोक के सारे सुख निहित हैं। बस इसी प्रकार कुछ मानव देहधारी भी मस्ती से शूकर -योनि में जीवन जीते हुए अपने को धन्य-धन्य मान रहे हैं। फिर उन्हें क्या कि कोई देख तो नहीं रहा??

💐शुभमस्तु!
✍लेखक ©
🙈 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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