सोमवार, 5 अगस्त 2019

'धर्मपत्नी' क्यों? [ अतुकान्तिका ]

इस देश के चारु चित्रो!
परम् विचित्र मित्रो !!
मेरी  पत्नी
मात्र मेरी है,
मत कहना उसे
कभी 'धर्मपत्नी' 
क्योंकि 
वह मात्र मेरी है।

'धर्मभाई '
मेरा भी तेरा भी,
किसी का भी,
जितना तेरा 
उतना ही मेरा,
उतना सबका,
अर्थात अपना
औरस भाई नहीं!

'धर्मबहन'
मेरी भी तेरी भी
किसी की भी,
पर औरस नहीं,
सबकी  बहन,
यही बात तो
नहीं होती सहन,
यानी सबकी।

'धर्मगुरु'
 संत आशा राम,
राम पाल,
राम रहीम ,
कोई भी
लहीम - सहीम,
धर्म की अफ़ीम
'धर्मगुरु'
यानी सबका।

'धर्मशाला'
सबकी शाला
जो भी ठहरने वाला,
उसकी शाला 
कोई निजता नहीं,
आज कोई 
कल और कोई।

मैं 'धर्मपति' भी नहीं
अपनी पत्नी का,
केवल पति ,
बस यहीं तक है
उसकी गति।

धर्मपति तो 
हो सकता है 
कितनी भी
धर्मपत्नियों का,
'धर्मपत्नी' माने
सार्वजनिक पत्नी
रक्षिता /रखैल
करती है जो
पुरुषों से 'खेल',
हो सकती हैं
कितनी भी,
कभी भी,
न बैंड न बारात
फिर भी
जीवन में साथ-साथ।

'धर्मपति 'भी
सार्वजनिक पति, 
रक्षित / रखा हुआ,
न सिंदूर न माँग,
फिर भी 
पूरा - पूरा स्वांग,
 नहीं पटी 
तो चल भाग!
औऱ 'धर्मसाला'
सबका साला,
तो पत्नी 'धर्मपत्नी ' क्यों?

जो मौलिकता 
भाई , बहन ,
गुरु और साले की है,
वह नहीं है
किसी 'धर्मभाई'
'धर्मबहन' 
'धर्मगुरु' 
या 'धर्मसाले' की ,
मूल मूल है,
धर्म से जोड़कर
उसे सार्वजनिक
 नहीं बनाना,
पत्नी को धर्म से जोड़कर
सबकी नहीं बनाना।
अपनी और उसकी
निजता को
नहीं मिटाना,
अपनी गृहस्थी पर
पत्थर नहीं बरसाना,
औरों के द्वारा 
फ़ूल- पत्ती 
नहीं चढ़वाना।

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🧕 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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