साधना साहित्य की नित,
यह 'शुभम' का धर्म है।
सबसे बड़ा आनन्द है,
कवि का सहज शुभ कर्म है।।
साधना में शब्द निकले,
बोलती माँ भारती।
छन्द लय गति को सुझाती,
कर रहे ज्यों आरती।।
बहुत से पर्याय होते,
शब्द हर आता नहीं।
माँ ही सुझाती क्या रखूँ,
मुक्ता सदृश भाता वही।।
प्रतिपल 'शुभम' के साथ है,
माँ तदपि अज्ञात है।
कृतकृत्य तेरा दास है,
तू सुबह संध्या प्रात है।।
साधना - पथ पर चलाती,
ज्ञान की आभा जले।
ज्योति जीवन में जगाती,
साँझ जब सूरज ढले।।
अक्षरों को जोड़कर माँ,
शब्द रच देती सुघर।
भाव रस नव छन्द स्वर में,
रचना सजाती है प्रखर।।
सप्त स्वर जब गूँज उठते,
स्वयं उठती लेखनी।
रात - दिन या समय कोई,
पड़ती नहीं है देखनी।।
साधना की आग जलती,
नित तपाती रात - दिन।
कसती कसौटी पर उसे,
छाती छवि छुन छुनन छिन।।
आम इंसां - सा लगे वह,
साध ले कर जो चला।
कर विसर्जित अहं अपना,
मातु - साँचे में ढला।।
साहित्य - हित ही साधता,
व्यक्ति देश समाज का।
''शुभम" सोहे सूर्य सदृश,
सिर सुशोभित ताज का।।
💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
📘 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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