रविवार, 18 अगस्त 2019

आँख [ व्यंग्य ]


                       दुनिया में 'आँख' का कमाल ही कमाल है। इनका आना भी खराब , और जाना तो और भी ज़्यादा खराब।आ जाए तो मुश्किल और चली जाएँ तो सारी दुनिया में अँधेरा हीअँधेरा।बस बीच की स्थिति ही सुखद है । न इनका आना अच्छा न जाना अच्छा। है न कमाल की बात ? ये  अगर हैं तो सारा  ज हान है, वरना  दुनिया वीरान है। अगर ये लड़ जाएँ , तो पता नहीं कि कितने ग़ज़ब ढाएं ? कितनों के घर उजड़ जाएँ , कितनों के बस भी जाएँ !  ये लड़ती हैं ,तो पता नहीं दिलों को कितनी खुशी होती है ! वे दो से   एक होने की ओर कदम बढ़ा देते हैं। और एक समय ऐसा आता है कि वे आगे बढ़ते - बढ़ते दो से एक ही हो जाते हैं या एक होने के लिए अपनी बाहें फैला देते हैं। और दूसरी ओर उनके लड़ने का एक हस्र और होता है कि घर वालों में महाभारत का सूत्रपात करने के लिए अक्षौहिणी सेना के घुड़सवारों और पैदल सेना की शंखध्वनि गूँजने लगती है।

                  आँखें चार भी होती हैं। अब आँख लड़ जाने और चार होने में रासायनिक क्रिया के परिणामस्वरूप जिस रस का उन्मेष होता हो, उसका गन्तव्य एक ही होता है। चार होने पर आँखों   की ताकत भी चार गुनी हो जाती है। लेकिन उनकी दूर देखने की क्षमता में  कमी अवश्य आ जाती है। अपने इर्द - गिर्द ही देख पाते हैं। फिर उन्हें अपने माता -पिता ,भाई-बहन भी ओझल होने लगते हैं। जब आँख खुलती है , तब तक काफ़ी देर हो चुकी होती है।

                 न सही बिछौना, पर आँखें बिछाई भी जाती हैं। जिन पर बाकायदे लोग बिठा लिए जाते हैं और लोग हैं कि वे आँखों पर शौक से आराम फ़रमाते हुए नज़र आते हैं। आँख इतनी मज़बूत और टिकाऊ अस्त्र है कि मारी भी जाती है। मजे की बात ये भी है कि जब आँख मारी जाती है , तो कहीं कोई खटका नहीं  होता । हर एक आदमी ये खेल नहीं खेल सकता।इस मारने  - मूरने के काम को हर एक अंजाम नहीं दे सकता। जिसको आँख मारी गई है,  उसे उसकी टक्कर झेल पाने की क्षमता से युक्त होना चाहिए।दोनों ओर से जब ये खेल शुरू हो जाए तो फिर तो कहने ही क्या !

               आँखों ही आँखों में प्यार करने के किस्से आपने बहुत सुने होंगे। ये आँख -मिचौली भी खेल सकती हैं। इस खेल में आदमी आदमी को अदृश्य हो जाता है। इस आदमी नामक प्राणी के के बहुत से ऐसे कर्म भी हैं कि ये चुरा ली भी जाती हैं। कुछ लोग अक्सर आँखें चुराते हुए अपने रास्ते ही बदल लेते हैं।  आँखें निकालने वाले लोग विवेक से काम नहीं लेते।जब पकड़े जाते हैं तो उनकी आँखें नीची हो जाती हैं।ये एक ओर इतनी रस भरी हैं , कि इनमें सरसों तक फूलने लगती है। सावन के अंधे को कहते हैं कि हरा ही हरा दिखाई देता है।

                 कुछ लोगों का काम ही यह होता है कि वे दूसरों की आँखों में धूल झोंकने में माहिर होते हैं। ऐसे लोगों की आँखों मे या तो पानी होता ही नहीं और यदि होता भी है ,तो मर जाता है। ऐसे लोग दुनिया की आँखों में काँटा बनकर चुभने लगते हैं। आँखों में पानी होना बहुत ज़रूरी माना गया है। चाहे शरीर में और कहीं पानी हो या न हो, पर आँखों मे तो जरूर ही होना चाहिए। क्योंकि कहा जाता है की आँख का पानी मर भी जा सकता है। अब यदि ये पानी ही मर गया तो फ़िर शेष क्या रह गया ! आँखों में पानी का अकाल नहीं पड़ना चाहिए।

                  प्रत्येक माँ को अपना काना बेटा भी आँखों का तारा होता है। लेकिन उसका वही तारा किसी किसी - किसी के लिए किसी राहु-केतु से कम नहीं होता। हर एक माँ अपनी औलाद को सर - आँखों पर बिठाती है। जब इंसान की आँखों में चर्बी छा जाती है तो उसका विवेक ही नष्ट हो जाता है। जब घर पर अपना ही कोई प्रियजन आता है तो आँखें ठण्डी हो जाती हैं। आँखें आदमी को कहाँ से कहाँ पहुंचा सकती हैं। कुछ लोग तो ऐसे भी हैं कि अपने बुढ़ापे का भी ख़्याल नहीं करते और गाहे बगाहे मौका मिलने पर अपनी आँखें सेंकने  में  भी गुरेज नहीं करते। जब उन्हें कोई अपनी हरकत पर रोकने टोकने लगता है तो आँखें नीली- पीली करते हैं, यद्यपि वे समाज में आँखें उठाकर देखने के क़ाबिल नहीं रह जाते, क्योंकि वे सबकी आँखों से उतर चुके होते हैं।

            आँखों का अपना पूरा एक संसार है। पूरी सृष्टि है। इनके बिना दुनिया ही नहीं। इसलिए प्रकृति की इस अनमोल नियामत को सँभाल कर रखिए। कहीं ऐसा न हो कि कहीं आप दूसरों की तो क्या अपनी ही आँखों से न गिर जाएँ। दूसरों की आँख से गिर कर आप आसानी से उठकर खड़े हों या न हों , पर अपनी ही आँख से गिरकर कभी उठ नहीं पाएंगे।इसलिए आँख वालो ! इन आँखों को संभालो। इसलिए देख के चलो :आगे भी नहीं पीछे भी, ऊपर ही नहीं नीचे भी। चारों ओर इधर भी और उधर  भी देख के चलना है।  वरना  जीवन भर के लिए आँखों से गिरना है। वास्तव में आँख तो आँख ही हैं।
शुभमस्तु!
 ✍ लेखक ©
 ☘ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम';

          

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