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✍ शब्दकार ©
🌞 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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हर पतझड़ के बाद में,आता है मधुमास।
किसलय में पत्ते खिलें,महके पुष्प सुवास।।
मानो या मानो नहीं, यह नरझड़ का दौर।
कौन झड़े कैसे कहें, कब आए फिर बौर।।
जो पत्ता निज शाख से,जुड़ा प्रकृति के संग।
वह देखेगा सृष्टि में , नए महकते रंग।।
मानव,पल्लव एक से,ज्यों - ज्यों होते पीत।
एक-एक झड़ते सभी,यही सृजन की रीत।।
नरझड़ को मत मानना,नीम शुभम के बोल।
माँ वाणी कहती यही ,बोल तुला पर तोल।।
करतूतें नर की बुरी, पैशाचिक व्यवहार।
जीवित इंसाँ खा रहा,हुआ यहाँ नरझार।।
नर का नर भोजन नहीं,नहीं इतर सब जीव।
प्रकृति तुझे समझा रही,भंग हुई नर सींव।।
मात्र तीन गुण हैं यहाँ,विदित सकल संसार।
रज तम में जो लिप्त हैं ,उनका ही नरझार।।
पूरब में सूरज उगे,देता विमल प्रकाश।
उस भारत से आज भी,करता है जगआस।
सूरज पश्चिम में छिपे , आती काली रात।
'शुभम 'पूर्व से ही हुआ,जग में नवल प्रभात।।
शिव शम्भो रक्षा करें, भारत का सद्भाव।
'शुभम' यही वंदन सदा ,पार लगाएं नाव।।
💐 शुभमस्तु !
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