शुक्रवार, 17 अप्रैल 2020

नियम कोई बंधन नहीं है ! [ अतुकान्तिका]


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✍ शब्दकार ©
🐒 डॉ.भगवत  स्वरूप 'शुभम'
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निहितार्थ हैं
कुछ तो,
कि जीवन 
थम गया है,
स्वयं अपनी 
कैद में
इंसान क्यों
यों रम गया है?
विस्तारवादी 
अहं का
परिणाम भीषण,
उच्च पर्वत पर
तुहिन- सा
जम गया है।

आदमी का ज़हर
आदमी ने ही
पिया है,
पीकर जहर ये
कौन धरती पर
जिया है?
अपने चक्षुओं से
देखता है
आदमी ये
मरता हुआ 
वह
आदमी अनगिनत ,
हृदय लख
काँपता  है
अपने भविष्यत को
जहन में
भाँपता है।

छू नहीं सकता
किसी इंसान को,
न अपने नाक मुँह
या नासिका,
खतरा मँडरा  रहा
उसी की जान को,
देखता है 
स्वप्न में
श्मशान को,
काँप उठती रूह,
जाने कहाँ
किस ओर 
बना हो 
प्राणघाती व्यूह,
देखकर कर
अस्पतालों ,
मुर्दाघरों,
कब्रिस्तान में
शव - ढूह।

निज 
प्राण रक्षण की
चिंता चिता - सी
धधकती है, 
बुद्धि मानव -कृत्य से
यों बहकती है,
निरुपाय 
असहाय ,
फिर भी
हो रहा मानव 
विस्तृत मुँह बाए
खड़ा है।

एक अदृश्य दानव
ताण्डव -नृत्य से,
दहलती है धरा ,
प्रतिक्षण 
सुनाई पड़ रही
अनसुनी ध्वनियाँ,
किस ओर
कौन मानव मरा,
यमराज ने
जिसके
प्राण को हरा।

छिप जाइए
अपने घरों में
सिमटकर, 
करके स्वयं 
घरबंदियाँ अपनी, 
अन्यथा संख्या 
कम हो जाएगी
घटकर,
कौन ले जाएगा 
देह तेरी को
मरघट पर,
ये सोचा ?

छूना मना है
भले ही हो 
जिंदा तुम,
बाद में क्या
हस्र हो तेरा ?
लगाता रह
अपने ही घरों में 
हे मनुज ! फेरा!
नहीं कर पाएगा 
ये तेरा, 
ये मेरा।


'शुभम' सात्त्विक 
बना रह ,
मत इतना
तना रह,
दिव्य आशा को
जगा मन में,
वही संजीवनी तेरी!
रक्षकारी सिद्ध होगी,
नियम कोई
बंधन नहीं है,
बताया जा रहा जो,
सबको सही है,
सबको सही है।

💐 शुभमस्तु !

16.04.2020 ● 1.30अपराह्न।

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