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✍ शब्दकार ©
☘️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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जीवन के खेल निराले हैं।
अपने ही ऊपर ताले हैं।।
ऐसा - वैसा कुछ होना था।
तज कामकाज घर सोना था।
कैसी दुर्धर्ष मिसालें हैं।
जीवन के खेल निराले हैं।।
मानी तो बहुत मनौती हैं।
हम अपने लिए चुनौती हैं।।
निज ग्रीवा फन्दे डाले हैं ।
जीवन के खेल निराले हैं।।
मानव, मानव को खाता है।
निज करनी पर इतराता है।।
छल -छन्द भरी सब चालें हैं।
जीवन के खेल निराले हैं।।
जिस शाखा पर बैठा मानव।
वह शाख काटता बन दानव।
जैविक बम आज निकाले हैं।
जीवन के खेल निराले हैं।।
विज्ञान आज अभिशाप हुआ।
जो कियाअद्यतन पाप-जुआ।
निज हाथ लिए करवालें हैं।
जीवन के खेल निराले हैं।।
पक रही फ़सल हैं जहरों की।
आ रही आँधियाँ कहरों की।।
अंधे - बहरों के जाले हैं।
जीवन के खेल निराले हैं।।
अब धर्म - कर्म सब पीछे हैं।
सब अपनी आँखें मींचे हैं।।
सात्विकता के नित लाले हैं।
जीवन के खेल निराले हैं।।
💐 शुभमस्तु !
16.04.2020 ◆7.30अपराह्न।
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