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✍ लेखक ©
⛱️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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हम सब छाताधारी हैं। हम इन छातों के आभारी हैं।हम सबके हाथ में छाते हैं। वे टूटे हैं , साबुत हैं, छेदों से भरे हैं, जिनके आच्छादन गले -सड़े हैं।इसकी हमें न फुरसत है न इच्छा ही है। बस तसल्ली है इतनी कि हमारे हाथ में छाते हैं। जो वक्त -बेवक्त हमारे काम आते हैं। इसलिए हम इन्हें सदा अपने ही पास पाते हैं। ये हमारे ढाढ़स हैं, हमारा भीतरी सुकून हैं। काम का हो या बेकाम का , बेजान सा -हमें बस साथ रखने से काम ।ये छाते हमारे लिए वह बंदूक हैं , जिसकी पता नहीं कब ज़रूरत पड़ जाए। कोई नहीं जानता।संक्षेप में कहें तो छाते हमारे रक्षक हैं।
अब प्रश्न यह पैदा होता है कि ये कौन -कौन से छाते हैं।जिन्हें बगल में दबाए हम इतना इतराते हैं।इन छातों के अनेक नाम हैं। व्यक्ति -व्यक्ति के लिए उनके नाम अलग -अलग भी हो सकते हैं। हमारी अनेक अपरीक्षित 'धारणाएँ' हमारे छाते हैं। जिन्हें भले ही हम नहीं अपनाते , पर उनका राग तो अवश्य ही अलापते हैं।हमारे 'सिद्धांत ' , 'शास्त्र' ,'पुराण' , 'उपदेश' -ये सभी हमारे छाते ही तो हैं। ये वे छाते हैं ,जिनको खोलने की भी हम कभी नहीं सोचते। छातों की डंडी किसी बेवजह भौंकते हुए कुत्ते के मारने योग्य भी है या नहीं , हम नहीं जानते।क्यों ?क्योंकि कभी छाते को खोलने का साहस ही नहीं किया ! कि उसके हैंडिल को जंग लग चुका है। वह छलनी हो चुका है। कोरे उपदेश और शास्त्रों की छाया में अपने झूठे अभिमान में ऐंठे फिर रहे हैं।
छातों के कपड़े झीने -झीने हो चुके हैं , जिनमें से नीले आकाश का नज़ारा बहुत आसानी से लिया जा सकता है। लेकिन वक्त आने पर एक बूंद पानी से भी रक्षा कर पाना उस छाते के कपड़े का वश नहीं है। छाते के कपड़े की तानें अपने बन्धों से इतनी निर्बंध हो चुकी हैं , कि जरा से झोंके में कपड़े को तार -तार कर सकती हैं। बस ऐसी ही तानों की तान पर मदमस्त सो रहे हैं हम। हमारे प्राचीन ग्रंथ अलमारियों में सजे हुए उन छातों का आभास देते हुए हमारे धर्म , मज़हब और समाज की रक्षा करते हुए दिखाई देते हैं। पर अंदर ही अंदर दीमक , झींगुरों के नन्हे छिद्रों को देखकर उन्हें धूप दिखाने या धूल झाड़ने का अवकाश भला किसके पास है? हाँ, बस इतना विश्वास है कि छाता हमारे पास है। यही हमारी आस है , यही हमारा विश्वास है।
हमारे छाते भी बड़े रंग -बिरंगे औऱ भड़कीले हैं।अपनी आँखें खोल पाएं या नहीं दूसरों की चुँधियाने के लिए उत्तम अस्त्र हैं।हम डरें या न डरें पर खेत में लगाए गए बिझुका की तरह हमने खेतों की मेंड़ -मेंड़ पर गाड़ रखा है। इनके रंग देखकर भड़कने वाले ऐसे भड़कते हैं ,जैसे लाल कपड़ा देखकर साँड़। शायद इन छातों का काम अब बिझुका का ही रह गया है।ये हमारे हाथों, अलमारियों, पुस्तकालयों , धार्मिक स्थलों की शोभा हैं।जैसे बगीचे के फूल हों , जिनकी रंगत औऱ खुशबू से ही सब कुछ सम्मोहित हो जाता है। ये हमारे आत्म सम्मोहक का कार्य करते हैं। जब हम स्वयं सम्मोहित हो जाते हैं , तो हमारा हर अगला चरण उसी से नियंत्रित होने लगता है।
बड़ा ही महत्व है हमारे जीवन में इन छातों का ।जब ये प्रयोग नहीं किए जाने पर भी इतने कारगर हैं , यदि इनको खोलकर सदुपयोग किया गया होता , तो न तो हम ही वह होते जो आज हैं ।और न यह समाज और देश ही वह होता , जो आज है । निश्चित ही ये छाते बड़े करिश्माई हैं।सारे संसार की मानव जाति इन्हीं छातों के नीचे आराम फरमा रही है। इसीलिए हमारा बाहरी रूप कुछ और है और आंतरिक रूप कुछ और है ।साधारण शब्दों में कहें तो हाथी के खाने के दाँत और हैं और दिखाने के और।अब दिखाने वाले दाँतों से खाया तो नहीं जा सकता ?इसलिए आदमी आज केवल अपने बाहरी दाँत दिखा रहा है। यदि खाने वाले दिखा देगा तो पोल पट्टी ही खुल जाएगी। इसलिए भूल मत जाना कि:
हम सब ही छाताधारी हैं।
छातों की महिमा भारी है।।
कोई क हे भले लाचारी है।
पर छातों से दुनिया सारी है।।
छाते ही हमारे हैं रक्षक।
पीता इंसान सुरा छक छक।।
इसमें न लेश भर भी है शक।
दौड़ते धर्म जग के धक धक ।
छातों से दुनिया हारी है।
नर हो चाहे हो नारी है।।
छाते मानव पर भारी हैं।
हम सब ही छाताधारी हैं।।\
💐 शुभमस्तु
© 10.04.2020 ◆ 5.50 अप.
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