सोमवार, 27 अप्रैल 2020

सन्नाटा ही सन्नाटा - कविता


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✍ शब्दकार©
🍀 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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 सन्नाटा    ही    सन्नाटा ! है,
सुनसान  सब गलियाँ  यहाँ।
जाने       कहाँ    है   आदमी,
 एकांत     का  साया    वहाँ।।

क्या  हो गया इस शहर को,
किसकी  लगी इसको नज़र।
आबाद    था  जो  रात- दिन,
उसकी    नहीं  कोई  खबर।।

किससे   कहें किसकी सुनें,
एक    ख़ौफ़ का साया यहाँ।
वह    कौन  है जिससे  कहें,
अब    आदमी   ढूँढें  कहाँ??

कब     तलक   ये  शून्यता ,
कब     तलक चुप आँधियाँ।
क्या     कोई भी  बतलायेगा ,
आबाद   कब हों   वादियाँ??

 ये      हाय !  कैसा   वक्त है,
सब     काम - धंधे  बन्द हैं।
रो      रही   कविता 'शुभम',
रूठे       हुए   से    छन्द  हैं।।

देख कर   के     दृश्य   ये ,
कुछ   समझ में आता नहीं।
अपना    प्यारा आगरा का,
रूप     ये   भाता      नहीं।।

रो    र ही     यमुना    नदी ,
ये     आँसुओं  की    धार है।
प्रकृति      से   संग्राम     में,
ये       आदमी की   हार है।।

जग    शून्यता    वीरानगी ,
कोसों     न दिखता आदमी।
कर्म     का फल भोगना तो,
इंसान     को  था  लाज़मी।।

देखी      नहीं   जाती  दशा ,
इंसान    को    सद्बुद्धि  दे।
हो    गया  अब   तो  बहुत ,
दुष्कर्म     की   भी शुद्धि  दे।।

💐 शुभमस्तु !

25.04.2020◆2.45अप. 

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