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✍ शब्दकार©
🍀 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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सन्नाटा ही सन्नाटा ! है,
सुनसान सब गलियाँ यहाँ।
जाने कहाँ है आदमी,
एकांत का साया वहाँ।।
क्या हो गया इस शहर को,
किसकी लगी इसको नज़र।
आबाद था जो रात- दिन,
उसकी नहीं कोई खबर।।
किससे कहें किसकी सुनें,
एक ख़ौफ़ का साया यहाँ।
वह कौन है जिससे कहें,
अब आदमी ढूँढें कहाँ??
कब तलक ये शून्यता ,
कब तलक चुप आँधियाँ।
क्या कोई भी बतलायेगा ,
आबाद कब हों वादियाँ??
ये हाय ! कैसा वक्त है,
सब काम - धंधे बन्द हैं।
रो रही कविता 'शुभम',
रूठे हुए से छन्द हैं।।
देख कर के दृश्य ये ,
कुछ समझ में आता नहीं।
अपना प्यारा आगरा का,
रूप ये भाता नहीं।।
रो र ही यमुना नदी ,
ये आँसुओं की धार है।
प्रकृति से संग्राम में,
ये आदमी की हार है।।
जग शून्यता वीरानगी ,
कोसों न दिखता आदमी।
कर्म का फल भोगना तो,
इंसान को था लाज़मी।।
देखी नहीं जाती दशा ,
इंसान को सद्बुद्धि दे।
हो गया अब तो बहुत ,
दुष्कर्म की भी शुद्धि दे।।
💐 शुभमस्तु !
25.04.2020◆2.45अप.
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