शुक्रवार, 17 अप्रैल 2020

ग़ज़ल


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✍ शब्दकार ©
🌞 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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बदलाव     का   नवयुग   आ  रहा है।
'नरझड़ '  स्वतः ही  हुआ  जा रहा है।।

मानव ने मानव को समझा न मानव,
विष    का विषज  अणु  बतला रहा है।

अहं  तेरा  रावण   से  ऊपर है कितना,
इशारे   को समझें समझाया जा रहा है।

सत्त्व  की  कोंपलें   ही  बचेंगी धरा पर,
समय -  संतुलन    ये   जतला रहा है।

मानव   ने   मानव  को  आहार समझा,
यही    आज  आँखों से दिख जा रहा है।

अपने    को  बचाओ  अपने भी बचे  हों,
सबक    शुभ्र संयम  का  पढ़ा जा रहा है।

'शुभम'खेल क़ुदरत का समझ तो गया है,
मानव से  मानव को खिलाया जा रहा है।

💐 शुभमस्तु  !

12.04.2020 ■ 3.00अप.

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