शुक्रवार, 24 अप्रैल 2020

रक्षक हन्ता [अतुकान्तिका]


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✍ शब्दकार ©
🍏 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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सोची -समझी 
साजिश,
आदमी
आदमी के लिए
आतिश,
लगी हुई है
भयानक आग,
डंसता हुआ
निरन्तर नाग,
नाग नहीं
डंसता नाग को,
पर आदमी
 उजाड़ रहा है
अपने ही बाग को।

नादानी नहीं यह
क्षम्य भी नहीं,
प्राण अपने भी 
नहीं प्यारे
वह इंसान नहीं,
जो आदमी को
उजाड़े,
आस्तीनों में 
छिपे हुए नाग
निकल आए,
देश के 
कोने -कोने में छाए,
आदमी ही आदमी को
मारने पर 
उतर आए,
रक्षक -हन्ता बन
पत्थर बरसाए,
आदमी की
नापाक करतूत 
क्या कही जाए?

तुम्हारे भले के लिए
खतरों से खेलते
चिकित्सक 
पुलिस के जवान,
उनकी देह के ऊपर
पत्थर के निशान?
वाह रे
इंसान की
देह धारे
हैवान ,
कायरता में
नहीं है तेरी शान,
क्या तुझे 
नहीं है 
प्रिय अपनी जान?
क्या नर
 क्या मादा!
सबका एक ही इरादा,
छतों से गलियों 
सड़कों पर,
पत्थर ले हाथ
रौंदते 
मानव देहधारी पिशाच!

देश और समाज 
में छिपे हुए 
असंख्य दुश्मन,
बच के 
जाओगे कहाँ,
 कीड़े -मकोड़ों की 
योनि में
नालियों में
पाओगे जहाँ,
नहीं मिलेगा
पुनः मानव  जीवन,
धिक्कार है तुम्हें।

साधु -संतों के
क्लीव घाती,
तेरी करनी
भला किसको भाती,
क्या यही है
मेरे भारतवर्ष की
अनमोल थाती?
हया तेरी 
आँखों में
क्यों नहीं समाती?
बदल -बदल कर चेहरे
बनकर जमाती,
तुम्हारी जननियाँ
तुम्हें जन के
क्यों नहीं शरमाती?

माँ भारती के
नाम पर 
हे रक्षक -हंताओ!
कलंक हो,
ज्यों वर्णमाला का
काला अंक हो,
इतने भी होना मत 
निशंक,
बुला रहा है
तुम्हें 
विषाक्त पंक,
तुम इंसान नहीं
साक्षात वायरस हो!
वायरस हो!!
वायरस हो !!!

💐 शुभमस्तु  !

23.04.2020  ◆4.30 अप.

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