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✍ शब्दकार ©
📒 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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'संसार परिवर्तनशील है',
ये सुना था ,
लेकिन अब कुछ दिनों से
देख भी रहे हैं,
गूँगे ,बहरे,
बिना आँख वाले भी,
बोल सुन और
देख रहे हैं।
सही कहा है किसी ने
'आपत्ति काले मर्यादा नास्ति'
सो आज पुरानी
मर्यादाएँ भी टूट
रही हैं,
वे आँखें
जो बन्द थीं पहले,
अब देखने भी
लगी हैं ,
तरसते थे कवि गण,
कि कोई उनकी
रचना को पढ़ ले ,
लेकिन कहाँ?
कोई झक भी
नहीं मारता था,
भले ही पड़ा - पड़ा
मारता रहेगा
मक्खियाँ,
पर कसम
कोरोना वायरस की
वह कविता नहीं पढ़ता था।
कविता ,
माँ सरस्वती की देन,
उसके प्रति
इतनी हिक़ारत?
लेकिन आज
वे मर्यादाएँ टूट गई हैं,
क्योंकि कोरोना की
चुड़ैलें घूम रही हैं,
कि किसको पकड़ें,
लोग घरबन्दी कर
घरों में कैद हैं,
उस पर तुर्रा यह
कि दुनिया में
न हकीम , डाक्टर
न वैद्य हैं,
कुछ तो करना ही है,
इसलिए समय
बिताने के लिए,
चलो कविता ही
पढ़ लें,
बर्तन तो नहीं
माँजने पड़ेंगे।
नीली स्याही के
सही के दो निशान,
दे रहे हैं
इसकी पहचान,
जिन्हें देखकर
शब्दकार
आल्हादित हैं,
भले ही
उन्होंने उनकी रचना
नहीं पढ़ी हो ,
देखकर आँखें
फेर ली हों,
क्योंकि आदमी
अपनी प्रकृति के विरुद्ध
नहीं जा सकता,
पैसे का कीड़ा पैसे की,
आलू का कीड़ा आलू की,
गोबर का कीड़ा
गोबर की महक में
मगन रहता है,
अपनी छोटी सी
दुनिया को रहकर
वह सभी जुल्म
सहता है।
घूरे के भी दिन
पलटते हैं
बारह वर्ष बाद,
बदल गए हैं
दिन शब्दकार के,
व्हाट्सएपीआओं को
वक्त ने कहाँ से कहाँ
छोड़ा है ,
सरस्वती के बिना
ज्ञान कहाँ?
जो मिलता
दिख रहा है ,
घरबंदी तक ही सही!
फिर तो खुल ही
जानी है
पुरानी खाता - बही,
आज तो जम ही
गया है,
दिमाग का सारा दही,
कवियों के पक्ष में
कुछ तो हो रहा है सही,
याद रखना
भविष्य में
मत कहना 'शुभम'से
नहीं , नहीं, नहीं!
💐 शुभमस्तु !
01.04.2020 ◆7.10 अप.
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