गुरुवार, 30 अप्रैल 2020

आओ चलो गाँव चलते हैं [ गीत ]


◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆
✍ शब्दकार ©
🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆
जिस  माटी  ने जन्माया  है,
वही गाँव अब याद आया है,
आँखों  में  सपने   पलते  हैं,
आओ  चलो  गाँव चलते हैं।

पेड़ नीम का कच्चा  आँगन,
मधुर  निबौली  झूला सावन,
पवन देव   पंखा   झलते  हैं,
आओ चलो  गाँव  चलते हैं।

लिपी - पुती   दीवारें  कच्ची,
लगती थीं वे   कितनीअच्छी,
गोबर से  आँगन  लिपते   हैं,
आओ चलो  गाँव  चलते हैं।

साँकल बँधी खा रही  सानी,
भैंस नाद  पर   पीती  पानी,
दूध, दही,  मट्ठा   मिलते   हैं,
आओ  चलो  गाँव चलते हैं।

हुई   लालिमा    जागा  गाँव,
भागा  दूर  उठा   तम   पाँव,
बिस्तर बहुत  बुरे  खलते  हैं,
आओ चलो  गाँव  चलते हैं।

पनिहारिन  पनघट  पर जातीं,
कमर शीश धर घट भर लातीं,
सास - बहू - चर्चे   मिलते   हैं,
आओ  चलो  गाँव  चलते  हैं।

हरे खेत चहुँ दिशि हरियाली,
पीपल बरगद  छटा  निराली,
आम मधुर  रस  से फलते हैं,
आओ चलो  गाँव  चलते  हैं।

ले हल बैल किसान निकलते,
पट्टी -  बस्ता  ले  हम  चलते,
जिस  विद्यालय  में पढ़ते  हैं,
आओ  चलो गाँव   चलते हैं।

लहराती     गेहूँ    की   बाली,
सरसों   पीले    फूलों   वाली,
चना  मटर  जौ भी   हँसते हैं,
आओ चलो   गाँव  चलते  हैं।

सादा   खान - पान औ' रहना,
कलकल सरिताओंका बहना,
 नहीं परस्पर   जन  छलते  हैं,
आओ  चलो  गाँव  चलते  हैं।

रूखी -  सूखी  रोटी    भाती,
चुपड़ी नहीं  कभी ललचाती,
राम-राम सब  जन कहते हैं,
आओ चलो  गाँव  चलते  हैं।

💐 शुभमस्तु !

30.04.2020 ◆2.00अप.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...