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✍️ शब्दकार ©
🦜 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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क्यों परिंदे
चिचियाने लगे हैं,
कानफोड़ू शोर
मचाने लगे हैं,
रँभाने लगीं हैं गाय गोरू
बकरियाँ मिमियाती हैं,
दुहवाती हुईं भैंसें
क्यों बिदक जाती हैं!
खिलंदड़ गोरियाँ ,
गाँव की छोरियाँ,
अब कुलाँचें नहीं भरतीं,
डेढ़ हाथ के घूँघट वालियाँ
नव यौवनाएँ
रहतीं हैं छिपती - लुकती,
न जाने क्यों
गाँव के सीधे - सादे छोकरे
इठलाने - से लगे हैं,
पड़ौसिनों भौजाइयों को
ताकने लगे हैं,
बालों में तेल,
चश्मे आँखों पर
चढ़ाने लगे हैं।
चौकन्ना-चौकन्ना-सा है
हर प्रौढ़ - प्रौढ़ा,
व्याकुल हिरनी - सी है
हर घर की अनूढ़ा,
सावधान करने में लगे हैं
बुढ़िया - बूढ़ा,
कहाँ से आ गया
नए जमाने का
हमारे गाँव में कूड़ा।
भूल गए हैं बालक
गुल्ली डंडा ,
काँच की गोलियों से
पूस माघ की धूप में
गुच्ची पाड़ा,
बालिकाएँ नहीं खेलतीं
गुट कंकड़,
झाँझी या फूल तरैया ,
क्योंकि हाथ -हाथ में
है जादू की डिबिया।
सुना ही नहीं
देखा भी है सबने,
आए हैं कुछ लोग
शहर से दिखलाते हुए
नए - नए सपने,
गाँव की हवा ही इसलिए
हर रोज बदल रही है,
पछुआ की पवन
अब गरमाने ,रिझाने ,
फुसलाने,तपाने लगी है,
उससे भी अधिक
हमें 'शुभम' सताने लगी है!
🪴 शुभमस्तु !
२५.११.२०२१◆३.३०
पतनम मार्तण्डस्य।
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