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✍️ शब्दकार ©
🪔 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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-1-
जलता परहित के लिए,करता तम का नाश।
दीपक के नव नेह का,सोहे तेज प्रकाश।।
सोहे तेज प्रकाश,वर्तिका निशि भर जलती।
घनी अँधेरी रात, भयातुर पल -पल ढलती।।
'शुभं'छिपा मुख चाँद,नहीं रजनी को छलता।
दीप अकेला आज,मिटाने तम को जलता।।
-2-
आया शुचि आलोकमय, दीपावलि का पर्व ।
अँधियारा उज्ज्वल करें,बाँटें ज्योति सगर्व।।
बाँटें ज्योति सगर्व, रहे क्यों खाली कोना।
उजियारे की आभ,ओस से कलियाँ धोना।।
'शुभम'सुहानी साँझ,समा सोहित मनभाया।
दें गणेश शुभ लाभ,रमा अर्चन दिन आया।।
-3-
काली धनदेवी जहाँ,वहाँ न सुख की राह।
अंतर में दुख कष्ट है,भावी भी नित स्याह।।
भावी भी नित स्याह,उलझनें सावन गातीं।
मोरी बने निकास,मुसीबत सब मुस्कातीं।।
'शुभं'विकलता शाख,झुलाती अपनी डाली।
दीवाली की रात,नहीं करना नर काली।।
-4-
बरसे धन जल मेघ-सा,चाहें डाकू , चोर।
नेता,अभिनेता सभी, गबनी, रिश्वतखोर।।
गबनी, रिश्वतखोर, संत रँगते जो चीवर।
करें मिलावट रोज,तृप्त क्यों पानी पीकर।।
'शुभं'न बुझती प्यास,बिना कंचन कब हरसे।
काले धन के कीट, चाहते सोना बरसे।।
-5-
अपने - अपने ढंग से, मना रहे त्यौहार।
काक टिटहरी मोर पिक, किंतु भिन्न व्यौहार।
किंतु भिन्न व्यौहार, नेवला नाग निराले।
चलते तीर कमान,किसी के निकले भाले।।
'शुभम' एक त्यौहार,अलग हैं सबके सपने।
कहीं दीप की ज्योति,किसी के रँग हैं अपने।
🪴 शुभमस्तु !
०३.११.२०२१◆७.३०
पतनम मार्तण्डस्य।
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