रविवार, 28 नवंबर 2021

ग़ज़ल ☎️

 

◆●◆●◆●◆◆◆●◆●◆●◆◆◆◆

✍️ शब्दकार ©

☎️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆●◆●◆◆◆●◆◆◆●◆●◆●◆●

जमाने   की  नजर  में   वे चुभने  लगे।

खार   उनके  बदन  पर हैं उगने लगे।।


खाक   उपले   हुए   वे   अंगारे  बने,

राख  बन  के   सबा   में  उड़ने  लगे।


चौंधियाती   उन्हें   रूप   की धूप    ये,

पड़ते  इक   झलक   वे बिदकने  लगे।


आतिश - सा  जलाता   है रुतवा  अगर,

साफ  है    वे  तपन  से  सुलगने    लगे।


आदमी ,आदमी  से इस कदर है  भुना, 

ज्यों  चने  भाड़ में जल उछलने   लगे।


बन  गए   खाते - पीते के दुश्मन  सभी, 

बेंट    से   वे   समूचे    उखड़ने   लगे।


बेहतर    हैं   'शुभम' ढोर  डंगर  सभी,

देख  मुस्कान  को  लोग  जलने   लगे।


🪴 शुभमस्तु !


२७.११.२०२१◆११.००आरोहणं मार्तण्डस्य।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...