शुक्रवार, 12 नवंबर 2021

शब्द-सुरभि 🪴 [ दोहा ]


[अपराधी, झील,अलाव,किलकार,मेला]

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

अपराधी भी जानता,क्या होता  अपराध।

उर में भरे  कुभाव जो,बदले नहीं  कुसाध।।


अपराधी सब सोच कर, करता क्रूर कुकृत्य

दंड पड़े जब देह पर,दिखता सत्य असत्य


कामिनि  तेरे रूप  को,देख दिया उर   कील।

डूब गया हूँ मानिनी, तव नयनों की झील।।


ओढ़े चादर शांति की,झील सुप्त उद्भ्रांत

धवल कोहरा झूमता,गिरि के उज्ज्वल प्रांत


आया जाड़ा गाँव  में, घर-घर जले अलाव।

कर विलंब सरि तीर पर,आती हैं अब नाव।।


क्यों अलाव से तप्त हो, बोल रहे यों  बैन।

लपटों- सा तन काँपता,लाल मिर्च - से नैन।।


आँगन में ज्यों ही पड़ी कविता सी किलकार।

दादी - बाबा  हर्ष में, मग्न हुए सह  प्यार।।


सुनने को किलकार स्वर, पति-पत्नी बेचैन।

प्रभु से  करते कामना,जोड़ हस्त, उर, नैन।।


जीवन मेला मेल  का,कर ले  प्राणी  मेल।

त्याग अहं के अंश भी,'शुभं न बिगड़े खेल।


मेला में भटकाव से,मिले न वांछित  राह।

अपनों का सँग साध ले, रहें न्यूनतम चाह।।


झील किनारे जल रहा,

             लोहित एक अलाव ।

मेले की किलकार से,

             गत अपराधी भाव।।


🪴 शुभमस्तु !


१०.११.२०२१◆९.३० आरोहणं मार्तण्ड।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...