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✍️ शब्दकार©
🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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जन - जन में व्यापित हैं खुशियाँ,
शरद सुहावन वेला है।
शुभागमित है शीत - सुंदरी,
मौसम ये अलबेला है।
प्राची में उगता जब सूरज,
लाल - लाल मुँह चमकाता।
अंबर में तारे गुम होते,
हिमकर कहाँ चला जाता।।
प्रकृति - सुंदरी ने दुनिया में,
खेल अनौखा खेला है।
जन - जन में व्यापित हैं खुशियाँ,
शरद - सुहावन वेला है।
शीतलता बढ़ रही निरंतर,
सघन कोहरा है छाया ।
नीड़ों में सिमटे हैं पंछी ,
प्रभु की मनमोहक माया ।।
सुमन सुगंधें बाँट रहे हैं,
निशि में तम का रेला है।
जन - जन में व्यापित हैं खुशियाँ,
शरद - सुहावन वेला है।
स्वेटर, कोट , शॉल ओढ़े हैं,
थर - थर काँपें नर - नारी।
मोटे गद्दे सघन लिहाफों,
में दुबकी घरनी सारी।।
बालक कहते ठंड न लगती,
खाते गुड़ का ढेला है।
जन - जन में व्यापित हैं खुशियाँ,
शरद सुहावन वेला है।।
ओस लदी पादप ,सुमनों पर,
झूम रहे गुलाब गेंदा।
सरिता में गुनगुना नीर है,
शीतल रेणु भरा पेंदा।।
आने - जाने का क्रम चलता,
दुनिया का यह मेला है।
जन - जन में व्यापित हैं खुशियाँ,
शरद - सुहावन वेला है।।
तिल के मोदक बहुत सुहाते,
गरम बाजरे की रोटी।
साग चने का सरसों भुजिया,
भाती है रोटी मोटी।।
'शुभम' धूप में बालक खेलें,
एक न उन्हें झमेला है।
जन - जन में व्यापित हैं खुशियाँ,
शरद सुहावन वेला है।।
🪴 शुभमस्तु !
१८.११.२०२१◆५.२५
पतनम मार्तण्डस्य।
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