शुक्रवार, 19 नवंबर 2021

जन-जन में व्यापित हैं खुशियाँ🧑‍🏭 [गीत ]


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✍️ शब्दकार©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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जन -  जन   में   व्यापित  हैं खुशियाँ,

शरद       सुहावन           वेला      है।

शुभागमित         है      शीत -  सुंदरी,

मौसम      ये           अलबेला     है।



प्राची     में      उगता    जब   सूरज,

लाल   -    लाल        मुँह  चमकाता।

अंबर     में         तारे        गुम  होते,

हिमकर       कहाँ         चला जाता।।

प्रकृति   -   सुंदरी        ने    दुनिया में,

खेल       अनौखा           खेला     है।

जन -  जन में      व्यापित   हैं खुशियाँ,

शरद      -       सुहावन       वेला   है।


शीतलता        बढ़       रही    निरंतर,

सघन         कोहरा        है     छाया ।

नीड़ों      में       सिमटे      हैं   पंछी ,

प्रभु     की         मनमोहक     माया ।।

सुमन      सुगंधें     बाँट      रहे    हैं,

निशि    में    तम    का     रेला    है।

जन -    जन में   व्यापित  हैं खुशियाँ,

शरद   -   सुहावन         वेला   है।


स्वेटर,     कोट ,    शॉल    ओढ़े  हैं,

थर -   थर     काँपें      नर  - नारी।

मोटे          गद्दे        सघन   लिहाफों,

में        दुबकी        घरनी     सारी।।

बालक    कहते    ठंड    न लगती,

खाते    गुड़       का     ढेला     है। 

जन  -  जन  में  व्यापित  हैं खुशियाँ,

शरद        सुहावन       वेला     है।।


ओस   लदी      पादप ,सुमनों पर,

झूम      रहे         गुलाब      गेंदा।

सरिता   में      गुनगुना   नीर  है,

शीतल       रेणु         भरा    पेंदा।।

आने -  जाने    का      क्रम चलता,

दुनिया      का      यह      मेला है।

जन -  जन   में   व्यापित  हैं  खुशियाँ,

शरद      -    सुहावन      वेला    है।।


तिल    के    मोदक     बहुत सुहाते,

गरम    बाजरे         की        रोटी।

साग    चने    का     सरसों भुजिया,

भाती        है           रोटी      मोटी।।

'शुभम'     धूप    में    बालक खेलें,

एक    न       उन्हें      झमेला    है।

जन  -  जन    में  व्यापित  हैं खुशियाँ,

शरद       सुहावन           वेला  है।।


🪴 शुभमस्तु !


१८.११.२०२१◆५.२५

पतनम मार्तण्डस्य।


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