शनिवार, 26 फ़रवरी 2022

घूँघट - पट की ओट [ दोहा ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🧕🏻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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मुख का दर्पण देख कर,होता हर  अनुमान।

दोष औऱ गुण झाँकते,मुख मन की पहचान।


हाव -भाव मुख आँख के,होते हैं  सब  दृष्ट।

उन्हें  छिपाने  के लिए,करता घूँघट    कष्ट।।


जितना छिपे छिपाइए,कर घूँघट  की ओट।

घूँघट-पट में क्यों छिपे,युगल नयन की चोट।


कलिका आधी हो खिली,नहीं बनी हो फूल।

जिज्ञासा  बढ़ती  रहे,आकर्षण  का   मूल।।


नर की कपट-कुदृष्टि से, बचना सदा सकार।

अवगुंठन  झीना  करे,नारी कृत   उपचार।।


नारी  की  रक्षार्थ  ही,नर  का अविष्कार।

घूँघट मुख की ढाल है,नहीं समझना  भार।।


नारी  कोमल फूल है,पुरुष वर्ग   है   भृङ्ग।

अवगुंठन  की कल्पना, देख न होना  दंग।।


घूँघट के इतिहास का,किया 'शुभम' ने शोध।

चलते  में गिरती नहीं,जागृत है  ये  बोध।।


भावों  की रँगरेलियाँ, घूँघट पट की  ओट।

बाहर  ही आती  नहीं,ढूँढ़ें मिले  न   खोट।।


चूड़ी,पायल,माँग की,विविध रूपिणी खोज।

नर ने  नारी के लिए,आनन किया  सरोज।।


नयन बाण आघात का,खतरा भारी   जान।

अवगुंठन से ढंक दिया,नारी-मुख शुभमान।।


🪴 शुभमस्तु !


२६.०२.२०२२◆१०.३०आरोहणं मार्तण्डस्य।


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