शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2022

पंचवर्षीय हाला 🍺 [ दोहा ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🌻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम '

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मधुशाला आबाद है,मौसम विरुद  - प्रसार।

पाँच वर्ष के बाद ही,आती वृहत    बहार।।


बिना पिए  जनतंत्र का,सहज न होता काज।

मदिरा सिर चढ़ बोलती,हमें तन्त्र पर नाज।।


खपत नित्य बढ़ने लगी,कहना नहीं  शराब।

जनसेवक की रक्षिका,वही चाम की आब।।


पकड़ी यदि जाए सुरा, कहलाए  वह  चोर।

चमचे पीते ओक से,कहीं न मचता   शोर।।


चमचों  के चित चाह है,होते रहें     चुनाव।

हाला की सरिता बहे,बना रहे निज   चाव।।


जिसने आसव ले लिया, मोहक मादक राज।

कितना चमकेगा 'शुभम',नभ में ऊँचा ताज।


चखा  सोमरस जीभ ने, कागा बना   मराल।

बदल बोल कहने लगा,ठोक-ठोक कर ताल।


स्वाद वारुणी का लिया,वरुण बना नर मीत!

बार-बार  रट  एक  ही, होगी तेरी   जीत।।


लोकतंत्र की वाहिका,मद्य साधिका साध्य।

औऱ उन्हें क्या चाहिए, कर देती मति बाध्य


मदमाते  चमचे अड़े, कहें भीड़   के  बीच।

ये सुराज के देवता,पिता जलज का कीच।।


खाने को तमचूक का, प्रातराश   हो  नित्य।।

'शुभम'सोमरस पान से,खिले सुमनऔचित्य।


🪴 शुभमस्तु !


०४.०२.२०२२◆१२.३० पतनम मार्तण्डस्य।


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