शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2022

पंजीरी खाते गधे 🍃 [ कुंडलिया ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                        -1-

खाते     पंजीरी   गधे,पाहन चुगते    हंस।

लोकतंत्र  में  काग ही,बने फिरें  अवतंस।।

बने फिरें   अवतंस,आम नित चूसें    सारे।

कोकिल, हंस, मयूर, बिलखते मारे - मारे।।

'शुभम'भौंकते श्वान,क्वार में ज्यों मदमाते।

गधे छोड़कर घास,पँजीरी निशि दिन खाते।।

                        -2-

बातें करते देश  की,करना उन्हें   विकास।

अपना घर सोना करें,और नहीं कुछ आस।

और नहीं कुछ आस,देश को पीछे  छोड़ा।

ले झण्डे की आड़,निजी हित मुख को मोड़ा

'शुभम' देश के नाम,समर्पित हैं दिन- रातें।

लगें सुहाने  ढोल,मधुर स्वर करते    बातें।।

                        -3-

सेवक  कहकर देश के,बन जाते   हैं  ईश।

मतमंगे बन चरण छू,फिर झुकवाते शीश।।

फिर झुकवाते  शीश,नहीं फिर  दर्शन  देते।

कर अपना  उद्धार,नाव अपनी  ही   खेते।।

'शुभम' भक्त का वेश,रखे कहलाते खेवक।

बगले बनते हंस, देश का कहते    सेवक।।

                        -4-

बदली परिभाषा  सभी,बदल रहा  है  देश।

गुण, चरित्र  पीछे गए,बचा देह  का  वेश ।।

बचा देह का वेश, सियासत सच्ची  पूजा।

बस परचम की छाँव,नहीं कुछ उनको दूजा।

' शुभं'हंस की चाल,चल रहा भाषा फिसली।

मानव है भयभीत, छा रही काली  बदली।।

                        -5-

सेवा  कैसी  देश   की,  गहे बिना  पतवार।

मत की पकड़ें नाव वे,बढ़-चढ़ हुए  सवार।।

बढ़-चढ़  हुए सवार, सजाए ऊँचे     झंडे।

सँग चमचों की फौज, मत्त-मदिरा मुस्टंडे।।

'शुभम' नित्य तमचूक,दे रही उन्हें  कलेवा।

खूँटा हो  मजबूत,तभी हो जन की   सेवा।।


अवतंस=महान,श्रेष्ठ व्यक्ति।

तमचूक=मुर्गी।


🪴 शुभमस्तु !


०४.०२.२०२२◆ ११.०० आरोहणं मार्तण्डस्य।

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