बुधवार, 2 फ़रवरी 2022

राष्ट्र -धर्म 🇮🇳 [ दोहा ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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 भर  लेते हैं  श्वान भी, अपना - अपना  पेट।

राष्ट्र-धर्म कब जानते,जो निज हित के चेट।।


नहीं जानते पशु कभी,क्या है अपना   देश।

बस भोजन ही लक्ष्य है,शूकर जन का वेश।।


प्रेम , एकता  से   रहें, करना स्वयं    सुधार।

ये भी कुछ कम तो नहीं,बनें नहीं  बटमार।।


रूप,रंग,भाषा अलग,फिर भी हम  हैं एक।

यही भाव उर में बसे,कर्म देश हित  नेक।।


सैनिक सीमा पर खड़ा,रक्षक है दिन - रात।

राष्ट्र-धर्म  में निरत है,देता अरि  को  मात।।


कृषक उगाता अन्न फल, सब्जी,छाने खाक।

राष्ट्र -धर्म  का प्राण है,वही देश  की  नाक।।


जिसका जो निज कर्म हो,है उसका वह धर्म

वही देश हित आपका,करने में क्या शर्म??


स्वयं आचरण कर रहे,यही श्रेष्ठ   उपदेश।

ढोंग बना सिखला रहे,कपटी है तव  वेश।।


नमन तिरंगे को करें,वीर जवान  किसान।

भारत भू को नमन है,भारत देश  महान।।


जो न हुआ निज देशका,वह कृतघ्न पशु हीन

उनसे उत्तम सलिल की,तैर रहीं जो  मीन।।


निज हित जो पहचानते,क्यों न जानते देश?

तिलक लगा धोखा करें,बढ़ा शीश के केश।।


*चेट = दास।


🪴 शुभमस्तु !


०२.०२.२०२२◆१०.३०

आरोहणं मार्तण्डस्य। 

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