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✍️ व्यंग्यकार©
💰 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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पृथ्वी लोक में मानव के चार पुरुषार्थों के अंतर्गत धर्म के बाद 'अर्थ का' दूसरा स्थान है। धर्म किसी के वश का हो या न हो, किंतु अर्थ सबके वश में है अथवा यों कहिए कि सभी को अर्थ ने अपने वश में किया हुआ है।एक नन्हें मानव - शिशु को यदि कागज का एक टुकड़ा दें तो यह आवश्यक नहीं है कि वह उसको ले।वह ले भी सकता है और नहीं भी ले सकता है। इसके विपरीत यदि उसे कोई नोट दिया जाए ,तो वह तुरंत मुट्ठी में भींच लेता है औऱ सहज ही आपको पुनः वापस भी नहीं करता। यही तो अर्थ की क्षमता है। यही अर्थ की महती शक्ति है।
इस धरती पर क्या नर और क्या नारी, क्या धनवंत और क्या भिखारी ,क्या राजा और क्या रंक ; सबके लिए है अर्थ का मधु दंश। भले ही यह दंश बनकर धारक को डस ले अथवा उसकी आवश्यक आवश्यकता बन कर उसका जीवन बन जाए! कुछ भी कर सकता है। अर्थ एक ऐसी चादर है, जो काले को गोरा बना दे। काली लड़की को स्वर्ग की अप्सरा का सम्मान दे दे। गोबर पर गिरे तो उसे कलाकंद बना डाले।अर्थ सारे दोषों को ढँककर किसी भी व्यक्ति अथवा वस्तु को कंचन सदृश चमक प्रदान करने की क्षमता रखता है।
अर्थ की महिमा सारा संसार गाता है।उससे लाभ उठाता है। किसी सिनेमाई गीत की पंक्ति 'बाप बड़ा ना भैया, सबसे बड़ा रुपैया ' : इसी बात की पुष्टि करती है।लोगों को यह भी कहते हुए देखा जाता है कि 'बाप बेटे का भी हिसाब होता है। मानवीय सम्बंधों को अच्छा या बुरा बनाने में अर्थ की अहम भूमिका है।यदि बाप अपने दो चार बेटों में जिसे अर्थवन्त बनाए रखे उसके लिए उनका बाप बहुत अच्छा है , अन्यथा केवल अर्थ के लिए कलयुग के अनेक सपूत कपूत बन गए हैं। नाराज पुत्रों द्वारा खेत ,घर ,संपति आदि का उनकी इच्छानुसार यदि आवंटन नहीं हुआ ,तो पल भर में ही सारे आदर्शों को खूँटी पर टाँगकर बाप को स्वर्ग लोक की यात्रा कराने में देरी नहीं करते। यदि आई हुई पुत्रवधू को श्वसुर जी से अर्थ नहीं मिलता तो उनके लिए उन्हें रोटी तक देना निरथर्क मान अघोषित ,कभी -कभी घोषित करके बहिष्कृत भी कर दिया गया है ।
धर्म भी बिना अर्थ के नहीं हो पाता।इष्ट देव की फूल माला, प्रसाद, मंदिर का निर्माण,पूजा, हवन सामग्री, आरती , दक्षिणा आदि में अर्थ की महती भूमिका है।इनमें कोई भी वस्तु या कर्म अर्थ बिना निरर्थक ही है।धर्म के लिए अर्थ की वैसाखी अनिवार्य है।कहना यही चाहिए कि बिना अर्थ के धर्म एक कदम भी आगे नहीं बढ़ता।
तीसरे पुरुषार्थ 'काम' के लिए भी अर्थ एक मजबूत सहारा है।कामनाओं की पूर्ति घर को चलाना, विवाह,शादी, रसोई ,वस्त्र, गृह निर्माण: सबमें अर्थ एक जीवंत तत्त्व है। जीजाजी जब तक अर्थ से सालियों को प्रसन्न नहीं कर लेते तब तक जीजी के घर में उनका प्रवेश नहीं हो पाता। इसलिए वे उनके जूते चुराकर अन्यत्र छिपा देती हैं।जब उनका पर्स अर्थवान हो जाता है ,तभी उन्हें मार्ग दिया जाता है।यहाँ भी पूरी ब्लैकमेलिंग चलती है ; वह भी अर्थ से।
बस एक ही परुषार्थ 'मोक्ष' के लिए अर्थ आवश्यक नहीं है। 'स्वार्थ' में भी अर्थ पूरी तरह रमा हुआ है। यदि स्वार्थ से अर्थ निकाल दिया जाए तो बचता भी क्या है, जो बिना इसके निरर्थ ही है।अब देखिए इस 'निरर्थ ' में तो वह जबरन घुसा हुआ है। जब 'परमार्थ' की बात करते हैं, तो वह भी अर्थ से अछूता नहीं है।खेती, व्यवसाय, नौकरी, सेवा, पुण्य ,पाप; कोई भी हो; मैं अथवा आप ,सब में अर्थ रमण कर रहा है।अरे !उसने 'व्यर्थ ' को भी वृथा नहीं रहने दिया ! कोई 'समर्थ 'होगा तो क्या वहाँ अर्थ नहीं होगा? अवश्य होगा।
दहेज के भूखे भेड़ियों ने तो अर्थ से मानवीय जगत को नरक बना कर रख दिया है। जहाँ अर्थ की अतिशयता है, वहाँ मानव और मानवता का कोई मूल्य नहीं है। 'दुल्हन ही दहेज है ,' का नारा झूठा सिद्ध हो चुका है।बिना 'दहेज - अर्थ' (जो नोट, सोना ,चाँदी, गहने , वस्तु , सामग्री के रूप में भी है) के दूल्हा या दूल्हे का बाप , कोई भी संतुष्ट नहीं होता। श्वसुरालय में भी बहू दर्शन से पूर्व सास, ननदों और पड़ौसियों द्वारा दहेज- दर्शन का चलन है। बहू के मुखारविंद का प्रथम दर्शन ;चाहे सास करे , पड़ौसी करें ,सम्बन्धी करें, अथवा सुहाग सेज पर स्वयं दूल्हा ही क्यों न करें, अर्थ की रिश्वत तो देनी ही पड़ती है। अर्थ में वह चमत्कारिक शक्ति है ,जो काली दुल्हन को भी मेनका औऱ रम्भा बना देती है।इतनी शक्ति तो 'गोरी बनाव केंद्रों' के रसायनों में भी नहीं है।
संसार में होने वाली अनेक लड़ाइयां भी जर ,जोरू औऱ जमीन के लिए होती चली आ रहीं हैं।वह लड़ाई चाहे राजा से राजा की हो , देश से देश की हो, बाप से बेटे की हो, पति से पत्नी की हो, वेतन भोगी , व्यवसायी , कारीगर, कर्मचारी ;किसी से किसी की हो , वहाँ सर्वत्र ही अर्थ तत्त्व ही मूल कारक है।यहाँ तक कि मनुष्य के शरीरान्तरण के बाद अर्थी भी अर्थ से ही सार्थक होती चली आई है। शवाच्छादन, घृत, पुष्प, धूप, चंदन, काष्ठ सबमें अर्थ ही अर्थ है। जीवन विरक्त साधु संतों की उदर पूर्ति क्या बिना अर्थ के कभी हुई है। जन्म से मृत्यु पर्यंत एकमात्र अर्थ ही प्राण है। अर्थ ही त्राण है। अर्थ के लिए तो मानव ने देवी लक्ष्मी को यह पवित्र अधिकार दिया ही हुआ है,कि वे हमारे घर पर अर्थ वर्षा करती रहें।ज्ञान - देवी हों चाहे नहीं हो, पर अर्थ की देवी अवश्य ही हों।उनके जाने वे उल्लू पर बैठ कर आवें या कैसे भी आवें, पर आनी चाहिए। इसके लिए वर्ष में अर्थ वर्षा के लिए दीपावली का एक विशेष पर्व भी मनाया जाता है। लक्ष्मी काली हों या गोरी ,पर आनी ही चाहिए। साधन कैसा भी हो, पर आनी लक्ष्मी (अर्थ) ही चाहिए।इसलिए चोर ,डाकू, जेबकट, राहजनी कर्ता, गबनी, बेईमान, ईमानदार ,धर्मी ,अधर्मी;किसान, मजदूर, अपनी -अपनी अर्थ - देवी की पूजा करते हैं। मिले ,चाहे छप्पर फाड़ कर दे, चाहे आँगन में बिना पसीना बहाए दे। काम से दे ,या हराम से दे। पर दे।
🪴शुभमस्तु !
२१.०२.२०२२◆५.३०पतनम मार्तण्डस्य।
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