शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2022

पुराने चावल ! 🌾 [ अतुकांतिका ]


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✍️ शब्दकार ©

🌾 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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ऐ पुराने चावलो!

तुम कितनी ही

बालियाँ मलो,

अतीत के गुण गाओ,

अपनी सफेदी को बखानो!

कहते रहो 

कि हमने 

पिया है कितना

कितना दूध घृत छाछ,

धूप में नहीं 

सफेद बनाए हैं

अपने ये बाल!

जिया है हमने

अपना अतीत विकराल;

कहते रहो।


कहते रहो,

कौन सुनता है तुम्हारी!

धान के इन लहलहाते

पौधों के समक्ष,

देख ही लो न ?

प्रत्यक्ष,

पयाल (प्यार) शून्य

सूखे पड़े धान के

 ढेर को,

वर्तमान में हो रहे

अंधेर को।


रेडीमेड का जमाना है,

ऑन लाइन मंगवाना है,

जैसा भी हो

सब अंगीकृत करना है,

अपने बुजुर्गों की

एक  नहीं

कान धरना है,

कौन पूछता है

तुम्हारा पुराना अनुभव!

अब नहीं रहा है

अब ऐसा कुछ सम्भव!

खूँटी पर ही टाँग लो इसे,

वहीं अच्छा लगता है,

आ गई न

कोई नए जमाने की बहू,

तो घर से आँगन तक

बजेगी उसी की

 कुहू -कुहू,

तुम्हारे अनुभव के

पिछौरे को 

बाहर कबाड़ घर में

फिंकवा देगी,

तुम्हारी मजबूत 

खूँटी की जगह

हेंगर सजा देगी!


रोपी है

अभी नई पौध,

कर रही उसी 

धरती पर मौज,

कहती है :

'अभी आप नहीं जानते,'

ये नई हवा है,

जिसके हम गवाह हैं,

छोड़ दो बीती 

पुरानी बातें,

गए वे जमाने!

वे गीत अब

हो गए पुराने!

सब धान 

बाईस पंसेरी

 नहीं बिकते,

पुराने चावलों

के दिन

अब नहीं टिकते!

इसलिए ऐ 'शुभम'

न ज्यादा बोलो

न ज्यादा सुनो!

डेढ़ चावल की 

खिचड़ी स्वयं ही बनाओ

स्वंय ही  खाओ।


🪴 शूभमस्तु !


११.०२.२०२२◆१.००प.मा.

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