सोमवार, 19 सितंबर 2022

जीता-जागता प्रेत 😈 [अतुकांतिका ]

 370/2022

 

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✍️ शब्दकार ©

⛴️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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हृदय की वेदना को

कब तक सँभालें!

कैसे सँभालें!

अंततः छलक ही

पड़ता है 

पिघलकर पाषाण-सा

अंतर्मन मेरा,

बनकर अश्रु 

दृग का,

उदासी बुझे 

सूरज की तरह।


जानकर ज़माने की

फूहड़ रुचि ,

उसे तो बस

हँसना ही है,

किसी के आँसुओं पर,

देखा नहीं क्या?

लड़ाई कोई भी

 कहीं हो,

गलत हो

अथवा सही हो,

देखने सुनने वाले

मजा लेते हैं

हँसकर सदा ही,

जिसके पक्षधर हों,

सही या असत्य से

लेना न देना,

किसी की 

जलती हुई आग में

हथेलियाँ या

रोटियाँ भी सेंकना।


कोई भी नहीं आता

निस्तारण के लिए

सहभागिता करने,

उन्हें मतलब भी क्या है

किसी के जीने 

अथवा मरने से।


किसी का संघर्ष 

उनके लिए

आंनद का

स्रोत है,

जमाना क्या है?

हितैषी नहीं 

किसी का,

सबको दिखने वाला

जीता- जागता

प्रेत है।


किसी से क्या आशा ?

मिलती रही है

सदा ही निराशा,

उचित है यही 'शुभम्'

कि जमाने पर न जाओ

स्वयं अपना पथ 

प्रशस्त करो,

किसी को कुछ भी

क्यों बताओ?

ज़माने को तो 

हँसना ही है

हर हाल में।


🪴शुभमस्तु !


१५.०९.२०२२◆ ६.१५ प.मा.


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