रविवार, 11 सितंबर 2022

जन -जन है घबराया🪸 [ गीत ]

 366/2022


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✍️ शब्दकार ©

🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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तोड़ी जातीं घर दूकानें,

जन -जन है घबराया।


नीयत बिगड़ गई मानव की,

भू सरकारी हड़पी,

खोल लिया व्यापार शान से,

अंतरात्मा  तड़पी,

टूटीं छत दीवारें,

रही नहीं मीनारें,

पर -धन पर ललचाया।


बकरे की अम्मा यों कब तक

बाँट सकेगी सिन्नी,

सरकारी   नोटिस  आते   ही,

होते चक्करघिन्नी,

अब क्या होवे रामा?

लगा वृथा  ही  नामा,

घर  में   मातम  छाया।


दोष  लगाते  सरकारों  को,

जान  बूझकर   सच को,

बहुत बुरी सरकार देश की,

दिया दान  हम  मत  को,

पता न था ये  धोखा,

बना दिया है खोखा,

निकला अब  तक  खाया।


देखा - देखी बढ़ा -  चढ़ाकर,

तोड़ी  हैं  सब  सीमा,

समझ रहे   थे अब तक सारे,

है   आजीवन बीमा,

गुपचुप अश्रु बहाएँ,

कौन हमें समझाएं!

सिमट  रही   है  माया।


🪴 शुभमस्तु !


०९.०९.२०२२◆ १.००प.मा.

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