381/2022
■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■
✍️ शब्दकार ©
🤴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■
जनता रहे गरीब ही, तानाशाही सोच।
हेल सिलासी ने कहा,उचित देश हो पोच।।
भरे पेट जनता करे, ऊँचा अपना शीश।
हेल सिलासी सूत्र है, मानव हो ज्यों कीश।।
जनता को शिक्षा न हो,रहे हीन बेकाम।
हेल सिलासी चाहता,उसको तब आराम।।
हेल सिलासी हो गया, वंशज तानाशाह।
हैल बनाया देश को,भरती जनता आह।।
शिक्षा, काम,निरोगता,उचित नहीं हैं आज।
हेल सिलासी के लिए,हो जाएगी खाज।।
पढ़े - लिखे नीरोग जन, करें बखेड़े नित्य।
हेल सिलासी मानता, यह उत्तम औचित्य।।
जनता का सुख कष्ट दे, सत्तासन की चूल।
हिल जाती यदि हेल की,उखड़ पलटती मूल
क्यों चाहे जन क्रांति हो,कोई शासक हेल।
डगमग आसन हो नहीं,चलने दें यह खेल।।
सत्ता के सब खेल हैं,अहंकार के दास।
हेल सिलासी के लिए,क्यों आए सुख रास।।
जनता का जीवन रहे, अंधकार का कोष।
हैल उचित उनके लिए,हेल सिनासी रोष।।
हेल सिलासी जो बना,उसका होता नाश।
जनता जब जागे तभी,देती उसे तराश।।
इथोपिया का क्रूरतम, हेल सिलासी नाम।
जनता-अरि सम्राट ये,बना देश को झाम।।
🪴शुभमस्तु !
२३.०९.२०२२◆९.१५आरोहणम् मार्तण्डस्य।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें