353/2022
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✍️ शब्दकार ©
⛲ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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समझ रखा था मैंने उनको,
सच के वे रखवाले।
एक - एक की पूँछ उठाई,
निकले बड़े निराले,
उड़े मुखौटे जब मुखड़े से,
पड़े जुबाँ पर ताले,
मिला दूध में पानी,
गहरी बड़ी कहानी,
उर से गए निकाले।
गगन चूमती मीनारों को,
देख - देख दहलाए,
कितना बहा पसीना होगा,
सोच बहुत चकराए,
संपति थी या पानी,
समझ न आया मानी,
आफत के परकाले।
सरकारी जमीन पर अपना,
कब्जा कर हथियाया,
महल दुमहला बहु मंजिल का
ऊँचा ठाठ सजाया,
सजीं दुकानें ऊँची,
गगन तनी मुछ - कूँची,
खाते स्वर्ण - निवाले।
सच को सच होते जब पाया,
खुलीं नींद से आँखें,
जो चिकना-चुपड़ा दिखता है,
मिटती देखीं शाखें,
गोबर को चमकाया,
आज समझ में आया,
फूट गए पग - छाले।
🪴 शुभमस्तु !
०१.०९.२०२२◆४.१५
पतनम मार्तण्डस्य।
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