381/2022
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✍️ व्यंग्यकार ©
🪞 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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मानव शरीर के साथ-साथ मानव - समाज में भी देह से अधिक मुखड़े की महत्ता है।दूसरे शब्दों में कहना ये चहिए कि मुखड़े की सत्ता है।वरना इस तीन हाथ के देह को कौन पूछता है! विवाह के बाद वधू के श्वसुरालय में शुभागमन होने पर इस मुखड़े के दर्शन के लिए ही मूल्य अदा करना पड़ता है। 'मुँह - दिखाई 'भी एक रस्म बनकर चेहरे की चमक में चौदह चाँद चमका देती है।यहाँ तक कि उसके पति महाराज को भी पहली बार 'मुख - दर्शन' के लिए कुछ उपहार से उपकृत होना पड़ता है।जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत मुखड़े की महत्ता बनी ही रहती है। शेष देह को भला पूछता ही कौन है? यही कारण है कि मृत शरीर का मुख देखकर तसल्ली कर ली जाती है कि मरने वाला वही है ,कोई अन्य नहीं है। मुखड़े की तुलना में सारे शरीर की इतनी अवहेलना कहीं नहीं देखी गई। विवाह से पहले अथवा लड़की दिखाने से पहले भी 'सौंदर्य निखार केंद्रों' पर हजारों का चूना लगाकर प्राथमिकता स्वरूप चेहरा ही चमकाया जाता है।शेष शरीर से मैच करे अथवा न करे।मुखड़ा हसीन होना चाहिए।भले ही ऊँट के गले में बकरी लटका दी जाए।
मानव जाति में विशेषकर नारी वर्ग के लिए मुखड़े का सर्वाधिक महत्त्व है। लगता है कि दर्पण की खोज भी किसी नारी अथवा नारी प्रेमी ने ही की होगी ताकि वे अपना अधिकांश समय दर्पण को समर्पित कर सकें।अतः सजना उनकी प्राथमिकता में है। भले ही बाबा तुलसी दास जी 'नारि न मोह नारि के रूपा' लिख गए हों। परंतु उन्हें पुरुषों के साथ-साथ स्व- सम्मोहित होने से भला कौन रोक सकता है! सो वे होती हैं। कोई भी स्त्री जब दर्पण के समक्ष खड़ी होती है, तो वह इस बात को कदापि नहीं भूलती कि वही 'ब्रह्मांड -सुंदरी' है।उसके रूप - सौंदर्य के समक्ष ब्रह्मांड की सारी नारियाँ पानी भरती हैं। यह है मानवीय मुखड़े की महत्ता।
आध्यात्मिक दृष्टिकोण से प्रायः मुखड़े का अवमूल्यन ही देखने-पढ़ने को मिलता है। एक गीत में स्पष्ट रूप से सचेत किया गया है :'मुखड़ा क्या देखे दर्पण में, तेरे दया धर्म नहिं मन में।'हमारा दर्शन बाहर से अंतर को अधिक महत्त्व प्रदान करता है। इसलिए उसने दर्पण में मात्र मुखड़ा देखने मात्र से वर्जित किया है कि इस मुखड़े को भला दर्पण में क्या औऱ क्यों देखता है?जब कि तेरे हृदय के भीतर जीव मात्र के प्रति दया भाव नहीं है औऱ तू स्व-धर्म का भी पालन नहीं करता! यदि ऐसा नहीं ,तो तेरे सुंदर मुखड़े का कोई महत्त्व भी नहीं है।
ये 'दर्पण' क्या कहता है?कभी सोचा है? कभी विचार किया है? 'दर्पण' =दर्प +न (ण) अर्थात जहाँ कोई दर्प(मद,घमंड,अभिमान) शेष न रहे। वही है दर्पण। यही कहता है 'दर्पण'। परन्तु हे मानव! (नर औऱ नारी दोनों) दर्पण में मुखड़ा देखकर अपने रूप पर इतराते हो? घमंड करते हो ? मद में चूर रहते हो ? जब तेरे अंतरतम में मानव औऱ जीव मात्र के प्रति दया -धर्म का सद्भाव नहीं है! तो दर्पण से क्या सीखा? जिसके समक्ष तेरा अहंकार नष्ट हो जाए ,वही है ये दर्पण।
मानव ने अपने से सम्बद्ध बहुत से क्षेत्रों में 'मुखड़े' पर भी 'मुखौटे' सजा लिए हैं।जैसे अभिनय, (जो मुखौटों के लिए सर्वाधिक सुप्रसिद्ध भी है।)धर्म,राजनीति,समाज सेवा औऱ तो और अब शिक्षा के क्षेत्र में भी मुखौटाधारियों की भरमार है। ये 'मुखौटा' औऱ क्या है ?वह स्वयं बोलता है। जिसकी ओट में मुख छिपा हुआ रहे ,वही तो है 'मुखौटा'।इसके पीछे न जाने कितना- कितना धोखा। मुखौटा लगाकर लूटने से किसने रोका ? मुखौटा ही तो देता है कितने -कितने मौका? मुखौटे के भीतर कभी किसी ने नहीं टोका।ओट में शिकार करने का तरीका ये अनौखा। कुछ काम- काज करने के लिए मुख को भी छिपाना पड़ता है।परंतु दर्पण का दीदार तो वहाँ भी आवश्यक जान पड़ता है। कहीं वास्तविक मुखड़े की पहचान न हो जाए! और बच्चू लाल कहीं सेंध पर ही न धर लिए जाएँ। यों मुखड़े का दर्पण से सम्बंध अन्योन्याश्रित प्रतीत होता है। बीच में यदि मुखौटे राम आ जाएँ तो आएँ।मुखड़े का भला क्या ले जाएँ? मुखड़ा तो पूरा का पूरा दर्पण को अर्पण ही है।
🪴शुभमस्तु !
२४.०९.२०२२◆९.००आरोह्मण मार्तण्डस्य .
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