गुरुवार, 1 सितंबर 2022

चोरी का गुड़! 🙊 [ अतुकांतिका ]

 354/2022

         

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✍️ शब्दकार ©

🙊 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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अतिक्रमण 

आचार का,

व्यवहार का,

सुविचार का,

दीवार का,

निज माप का,

या आपका,

अच्छा नहीं होता।


संतुष्टि 

मात्र कुछ अवधि की,

इसके बाद ??

विकृत नियति की,

विचार पहले ही

करना अत्यावश्यक था,

पर नहीं ,

विवेकशील मानव

खो बैठा विवेक अपना,

देखता हुआ

भविष्य का

मिथ्या सपना,

राम-राम जपना,

पराया माल अपना।


कच्ची मृत्तिका 

निर्मित ईंट से

अट्टालिकाएँ नहीं बनती,

उसे भट्टे के आग में

तपना ही पड़ता है,

तब कहीं जाकर

नींव का आधार

सुदृढ़ बनता है।


लेकिन क्यों है

सोच मानव की कच्ची?

जो तात्कालिक लाभ हेतु

खा जाता है गच्ची!

वस्तुतः उसकी

 दूरदर्शिता है टुच्ची,

जैसे किसी

 छोटे बालक की

घरोंदों की उम्र बच्ची,

बात तो

 यही है सच्ची।


बचता है अंत में

मात्र प्रायश्चित,

जब हो ही जाता है

चारों खाने चित्त,

चोरी का गुड़

कुछ ज्यादा ही

मीठा होता है।

आँसू नहीं गिरते बाहर

भीतर ही भीतर 

पीता है,

घुट -घुट कर 

रोता है,

पर अब क्या!

चुग जाती हैं

जब खेत चिड़ी

फिर पछताने से भी

क्या होता है?


🪴 शुभमस्तु!


०१.०९.२०२२◆८.३० 

पतनम मार्तण्डस्य।

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